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________________ १९९HAN प्रभु नियमित रूप से चारों संध्याओं में मेघवत् भव्य जीव रूपी शस्यों का अभिषिचन करते हुए धर्माम्बु वर्षण करते थे। पोग निरोष ... पायु का १ मास शेष रहने पर आपने योग निरोध किया अर्थात् देशना बन्द की। निष्प्रयोजन कुछ भी कार्य नहीं होता। अतः समवशरण रचना भी समाप्त हो गयी। अविचल रूप से भगवान सम्मेदाचल के सुप्रभास शिखर पर योगासन से प्रा विराजे । आपके साथ १००० मुनिराज जो समान अायु के धारी थे योग लीन हो गये। मुक्ति गमन-- वर्षाकाल । रिमझिम सुहावनी बौछार मयूरी और मयूरों का मोहक नृत्य । प्रकृति का सौन्दर्य उमड़ पड़ा मानों प्रभु के ध्यान की परीक्षा ही करना चाहता हो । उधर प्रभु संसार विमुख अन्तरङ्ग वासी, अपने में समाहित कर्मों को लड़ियों के काटने में संलग्न थे। भला, प्रलयकालीन झझा भी सुमेरु को कंपा सकता है ? नहीं। तड़-तड़ कर्म जंजीरे एक साथ टूट पड़ीं। परमाणु-परमाणु बिखर कर धूल में मिल गये । अता-पता भी नहीं रहा । भाद्रपद शुक्ला अष्टमी को प्रभात की सुहावना वेली ( पूर्वाह्न) में भगवान सिद्ध सिला पर जा विराजे । धर्म द्रव्य का आलो अस्तित्व न होने से यहां रहना अनिवार्य है । पूर्ण शुद्ध परमात्म दशा प्रकट हा गई ।। मोक्ष कल्याणक...... बुद्धिजीवी प्राणी सदा अपने स्वार्थ सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं । देव-देवियाँ और देवेन्द्र-शचि क्यों चूकते स-समारम्भ-सम्मेदाचल पर पा समन्वित हुए । नाना प्रकार पूजा स्तवन कर श्री पुष्पदन्त स्वामी का गुरणानुवाद किया। अग्निकुमार देवों ने मुकुटों से अद्भुत अग्नि द्वारा संस्कार क्रिया सम्पादन कर अपने स्वयं शीघ्र मोक्ष प्राप्ति की कामना की । नर-नारियों ने भी पूण्यवर्द्धक, पाप नाशक महा महोत्सव किया। दीप जलाये, लाडू चढ़ाये, गंघ-पुष्पादि अर्परए किये । मूला नक्षत्र में प्रभु मुक्त हुए । सभी महामहिमा प्रकट कर अपने-अपने स्थान को चले गये । [ १४१
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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