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केवलज्ञान कल्याणक
परास्त शत्रु या तो आत्म समर्पण कर देता है या भागकर छुप जाता है | भगवान के कर्म-शत्रु भी कांप रहे थे, क्या करें क्या नहीं । टिकने का कोई सहारा नहीं था । शुक्ल ध्यान के तोर धारपार हो रहे थे । अशक्त घातिया क्या करते, धराशायी हो गये । प्रभु दो दिन का उपवास धारण कर अपने दीक्षा वन-पुष्पक वन में प्रक्ष ( बहेड़ा ) वृक्ष के तले विराजे । अब क्या था, कार्तिक शुक्ला द्वितीया के दिन मूला नक्षत्र में शाम के समय आकाश में चन्द्र मुस्कुराया इधर प्रभु को केवलज्ञान रूपी सूर्य प्राप्त हुआ । अनन्त चतुष्टय के धारी हो गये प्रभु ।
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इन्द्रमाया | देव आये | देवियाँ प्रायों । कुबेर ने कल्पनातीत समवशरण बनाया। तीन कटनियों से मण्डित वेदी के मध्य मणिमय सिंहासन रचा। उस पर चार अंगुल घर विराजे प्रभु सर्वज्ञ होकर । १२ सभाओं से वेष्टित प्रभु अद्भुत शोभा धारण कर रहे थे । दिव्योंपदेश प्रारम्भ हुआ। देश-देश में विहार किया । २२५ सुवर्ण कमलों पर चरन्यास कर विहार करते हुए भगवान ने समस्त प्रार्य खण्ड को धर्मामृत पिलाया । इस प्रकार २८ पूर्वाङ्ग ४ वर्ष कम १ लाख पूर्व तक प्रभु ने मोक्षमार्ग का उपदेश दिया । समस्त तत्वों का यथार्थ स्वरूप दर्शाया अनादि कर्म बंत्र आत्मा को बन्धन मुक्त कर अनन्त काल तक सुखपूर्वक रहने की युक्ति सिखायी ।
समवशरण वैभव -
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इनके समवशरण में विदर्भ को आदि लेकर सप्तद्धि सम्पन्न म गणधर थे । १५०० श्रुतकेवली १ लाख ५५ हजार ५०० शिक्षक थे, ८ हजार ४ सो अवधिज्ञानी, ७ हजार ५०० केवलज्ञानी, १३ हजार विक्रिया ऋद्धिवारी ७ हजार ५०० मतः पर्ययज्ञानी, ६६०० वादमुनिराज मंगल स्वरूप उनकी सेवा में तत्पर थे। समस्त मुनिरत्नों की संख्या दो लाख थी । "घोषा" नाम की प्रमुख गणिनी प्रायिका को आदि ले तीन लाख अस्सी हजार आर्यिकाएँ थीं। दो लाख श्रावक और पाँच लक्ष श्राविकाएँ सभा में विराजती थीं । असंख्य देव-देवियाँ और संख्यात संज्ञी तिर्यञ्च धर्म लाभ लेते थे। इनका यक्ष प्रजित और यक्षी महाकाली (भृकुटी ) गंध कुटी में प्रभु के पार्श्व भाग में ही रहते थे ।
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