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आप पूज्य हैं, विवेकी हैं।" इस प्रकार स्तुति कर अपने नियोग का सम्पादन कर ब्रह्मलोक को चले गये।
देवेन्द्र भी सज धज कर 'सूर्य प्रभा' नामक पालको लेकर प्रा पहुँचा । मंगल स्नान और वस्त्रालंकार से अलंकित प्रभु शिविका में सवार हो क्रमशः राजा, विद्याधर और देवों द्वारा पुष्पक वन में जा पहुँचे । इन्द्र द्वारा स्थापित रत्नपूर्ण से मण्डित शिला पट्ट पर पूर्वाभिमुख विराज कर सिद्ध साक्षी में मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन शाम के समय एक हजार राजाओं के साथ दिगम्बर मुद्रा धारा की । दीक्षा लेते ही पंचमुष्टी लौच करने पर मन: पर्यय ज्ञान उत्पन्न हुआ। दो दिन का उपवास ले प्रभु ध्यान में तल्लीन हो प्रात्मदर्शन में निमग्न हो गये।
पारणा
मात्मानन्द का स्वाद कौन बता सकता हैं ? स्वयं ही जाने जो पाचे । प्रभु के निश्चल ध्यान में दो दिन पूर्ण हो गये । तीसरे दिन चर्या मार्ग से पाहार को निकले । वन से धीरे-धीरे जीव रक्षण करते प्रभु ने शैलपुर में प्रवेश किया यहाँ का राजा पुष्यमित्र अपनी स्वरिंगम कान्ति से प्रतिभा विखेरता द्वाराप्रवासा को खड़ा था । प्रम को देखते ही वह मारे हर्ष के गद्-गद् और रोमाश्चित हो गया । सपत्नीक विनय, भक्ति और श्रद्धा से मुनिराज पुष्पदन्त जी का पड़गाहन कर, शुद्धनिर्दोष उत्तम आहार दिया । नवधाभक्ति से दिथे पाहार दान के प्रभाव से उसके घर रत्न वृष्टि प्रादि पञ्चाश्चर्य हुए । तीर्थङ्कर को प्रथम पारणा देने वाला ३ भव से अधिक संसार में नहीं रहता । सातिशय पुण्यार्जन कर शोघ्र मुक्ति पाता है। यह है आहार दान की महिमा । इस प्रकार दातानों को पुण्य प्राप्त कराते हुए वे मुनिराज प्रखण्ड मौन से कठोर प्रात्म साधना में संलग्न हए ।
छपस्थ काल-----
तपाग्नि से परिशुद्ध प्रात्मा उत्तरोसर ज्ञान-वन स्वभाव को पा रहा था । सूर्य के ऊपर से बादलों के हटने पर जिस प्रकार उसकी किरणे प्रकाशित होती जाती हैं उसी भांति कर्म-करमश के दूर होने से प्रात्म प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा था । चार वर्ष के अथक परिश्रम से प्रभु ने सघन, शक्तिशाली घातिया कर्मों को जर्जरित कर डाला।