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________________ MRIRRORMWAREATMEMOImamIIALorreneumorrorumeanerumsumawaaMIR M IRMIRRITAARA A R ५० हजार पूर्व कुमार काल में पूर्ण हुए। पिता ने सर्वगुण सम्पन्न योग्य जानकर अनेकों सुयोग्य कन्याओं के साथ विवाह किया और राज्य भी प्रदान कर दिया । राज्यकाल-.. पुष्पदन्त की रानियों के रुप लावण्य और गुण प्रकर्षता से देवललनाएँ भी लज्जित थीं। उनके हाव भाव और क्रीडापों से मुग्ध राजा भोगों में पूर्ण रुप से निमग्न थे, किन्तु तो भी वे प्रजापालन में पूर्ण सावधान थे। उनके राजगद्दी पर आते ही असंख्य राजा मित्र हो गये। सर्वत्र अमन-चैन छा गया। भिक्षुक खोजने पर भी नहीं मिलते थे । सभी सर्व प्रकार सुखी थे। राज्य की सर्व प्रकार वृद्धि हुयी । सुख शान्ति और आमोद-प्रमोद से शासन करते हुए ५० हजार पूर्व और अट्ठाईस पूर्वाङ्ग वर्ष काल समाप्त हो गया। किसी एक दिन वे अपने महल पर पासीन दिशाओं का सौन्दर्य देख रहे थे । मार्गशीर्ष माह के बादल धीमेधीमे आकाश में घुमड़ रहे थे। सहसा एक ज्योति चमकी और उसी क्षण विलीन हो गयी। राजा श्री पुष्पदन्त का हृदय इस दृश्य से दहल उठा। उनकी दृष्टि बाहर से भीतर गई। "संसार की प्रसारता स्पष्ट हो गई । संसार में कुछ भी स्थिर नहीं, सार नहीं। एक मात्र प्रारमा ही अमर है । यहाँ न कुछ शुभ है, न सुख दायक है, न मेरा ही कुछ है । मेरा प्रात्मा ही मेरा है, परमाणु मात्र भी मुझसे परे है। मैं ही मेरा सुख, शुभ, शान्ति और नित्य है। पोह! मोहाविष्ट हो आज तक पर को अपना मान कर घूमता रहा । अब एक क्षण भी बिलम्बन करना है।" इस प्रकार स्वयंयुद्ध महाराज ने अपने सुयोग्य पुत्र सुमति को राज्यभार अर्पण किया । दीक्षा कल्याणक-- श्री पुष्पदन्त जन्म मरण से छूटकारा पाने को कटिवद्ध हए । इधर लौकान्तिक देवर्षि प्राकर उनके चारों ओर उपस्थित हुए । वे कहने लगे "प्रभु आप धन्य हैं । मनुष्य भव पाना आप ही का सार्थक है । हम स्वर्ग वासी होने से संसार की असारता को जानकर भी त्याग नहीं सकते । आपका विचार महान है । हमें भी शीघ्र यह अवस्था प्राप्त हो। १३८ ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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