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उल्कापात देखा । बस क्या था, इष्टि फिरी, अपने श्रीकान्त पुत्र को राज्य दे स्वयं श्री प्रभ प्राचार्य के चरणों में जा दिगम्बर हो तप करने लगा। प्रायु के अन्त में श्री प्रभ नामक पर्वत पर सन्यास भरण कर प्रथम स्वर्ग में श्रीधर नाम का देव हमा । इच्छानुसार भोग भोग कर प्रायु के अन्त में च्युत हुआ।
घातकी खण्ड के भरत क्षेत्र के अलका देश की अयोध्या नगरी के राजा अजितंजय की रानी अजितसेना के गर्भ से अजितसेन नाम का पुत्र हया । यौवनावस्था प्राप्त कर पिता द्वारा दत्त राज्योपभोग किया । . पिता दीक्षा धारण कर मुक्त हुए।
अजितसेन ने अपने पुण्योदय से चक्रवर्ती हो असीम भोगोपभोग सामग्री प्राप्त की। किन्तु विषयों से सदा उदासीन रहे । एक दिन गुणप्रभ तीर्थङ्कर की वन्दनार्थ गये। धर्मोपदेश सुना । भोगों से विरक्त हो अनेकों राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर कठोर तप किया। अन्त में नमस्तिलक पर्वत पर समाधि मरण कर सोलहवें स्वर्ग में शान्तिकर विमान में इन्द्रपद प्राप्त किया।
निमिषमात्र के समान सुख का काल सागरों प्रमाण पूर्ण हो जाता है । प्रायु के अन्त में च्युत हो वह इन्द्र पूर्व पात की खंड के मंगलायती देश के रत्नसंचयपुर नगर के राजा कनक प्रम की महारानी कनकमाला के पद्मनाभ नाम का पुत्र हमा। यह न्याय एवं तर्क शास्त्र का ज्ञाता हमा । पिता से प्राप्त राज्य का न्याय पूर्वक संचालन किया । पिता दीक्षा ले मुक्त हुए।
पपनाम की सोमप्रभा से सुर्वणनाभि पुत्र हुश्रा । एक दिन श्री श्रीधर नाम के मुनिराज की वन्दना कर धर्मोपदेश सुन राजा ने सुवर्गनाभि को राज्य दे दिगम्बर मुद्रा धारण की। उसने घोर तप के साथ अगाध अध्ययन किया । वे ग्यारह अंग के पाठी हो गये तथा शोडष कारण भावनाओं का प्रगाढ़-सुक्ष्म चिन्तन कर तीर्थ गुर गोत्र का बन्ध किया । प्रायु के अन्त में सन्यासमरण कर जयन्त नामक अनुत्तर विमान में ३३ सागर आयु, एक हाथ का सफेद शरीर बाला अहमिन्द्र हो गया। वह ३३ हजार वर्ष बाद मानसिक आहार लेता, ३३ पक्ष बाद उच्छवास लेता था । जन्म से ७ वी भूमि तक का अवधिज्ञान लोचन था। यही होंगे चन्द्रप्रभ भगवान ।