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गर्भावसरण कल्याण- ऋतुराज बंसत का आगमन हुमा । भूमि ने नव शृगार किया। वृक्षों ने पुराने पतों का त्याग कर नव कोपलों से अपने को अलंकृत किया। लताएं लहलहाने लगी। टेसू के फलों को शोभा का क्या कहना? पान मंजरी की मादक गंध ने और भ्रमरों की मधुर गुंजार ने चारों ओर भोगियों को सुख साम्राज्य स्थापित कर दिया । धरा के वैभव को लज्जित करने मानों स्वर्ग का वैभव ईलुि हो उठा और जम्बुद्वीप में चन्द्रपुरी के महाराज महासन के प्रांगन में रत्नराशि के रूप में वर्षा के बहाने आने लगा। एक दो दिन नहीं, लगातार ६ महीने हो गये थे। इक्ष्वाकुवंशी, काश्यप गोत्रीय महाराजा महासेन अपनी महादेवी लक्ष्मरणा के साथ पहले ही महाविभूति का भोग कर रहे थे, फिर अब तो अनेकों देवियाँ उनकी (लक्ष्मणा) सेवा में नाना पदार्थों के साथ प्रा गई । घर अांगन-दिव्य वस्त्र, माला लेप, मयन, संबील, नत्य आदि मुख सामग्री से भर गया । चैत्र कृष्णा पंचमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में उसने संतुष्ट होकर सोलह स्वप्न देखे । सूर्योदय के साथ ही मंगल पाठों के श्रवण पूर्वक निद्रा से उठी । अलंकृत हो राज्यसभा में पधार कर राजा को स्वप्न सुनाये । महासेन नृपति ने "तीर्थङ्कर बालक गर्भ में पाया है" कह कर स्वप्न फल बतलाया ।
श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी देवियों ने माँ लक्ष्मणा की कान्ति, लज्जा, धैर्य, कोति, बुद्धि और सौभाग्य की वृद्धि की। नाना विनोंदों, कथा-वातत्रिों से देवियां सेवा कर पुण्यार्जन करने लगीं । धीरे-धीरे गर्भ बढ़ने लगा किन्तु माता का उदर सादि ज्यों का त्यों रहा। अर्थात् विकार नहीं हुया । अन्माभिषेक
आमोद-प्रमोद के दिनों को जाते क्या देर लगती है ? क्रीडा मात्र में मास पुरे हो गये। पौष कृष्णा एकादशी का दिन प्राया। अनुराधा नक्षत्र में मति, श्रुत, प्रवधि ज्ञान बारी बालक का जन्म हुआ। न केवल चन्द्रपुरी अपितु तीनों लोकों में अानन्द छा गया । सजा का आंगन देवेन्द्र, देव देवियों से भर गया। बाल प्रभ को अंक में धारण कर शघि इन्द्र को ललचाने लगी। इन्द्र ने सहस्र लोचनों से उनकी रूप राशि को निरखा । पुनः इन्द्राणी सहित बाल प्रभु को ले ऐरावत