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________________ जो लक्ष्मी और सौन्दर्य की प्रतिमा स्वरूप थी। दम्पत्ति वर्ग में अटूट प्रेम था । वह शील, सौभाग्य और पतिभक्ति परायण थी। दोनों का सुखमय काल जिन भक्ति के साथ व्यतीत हो रहा था । वे अपने को सर्वसुख अनुभव करते थे। क्या संसार में कोई सर्बसूखी हो सकता है ? यदि होवे तो बैराग्य क्यों पावे ? साधु कौन बने? त्याग करने का भाव ही क्यों आवे? ये भी इसके अपवाद नहीं थे। श्रीकान्ता का यौवन ढलने लगा । सब कुछ होकर भी उसकी अंक सूनी थी । संतान तो नारी जीवन का शृगार है उसके बिना गृहस्थ जीवन ही क्या ? दिन ढल गया था । सूर्य ने अपनी किरणों को संकोचा । कुछ ही क्षण में प्रतीची में लाली बिखरने लगी। सुगंधित मन्द वाय बह रही थी । उसी समय वह 'श्रीकान्ता' अपने प्रासाद पृष्ठ पर आसीन नगर को शोभा निहार रही थी ! सहसा नीचे गेंद खेलते श्रेष्ठी पुत्रों पर दृष्टि पड़ी । दुष्टि क्या थी उसके हृदय को पीड़ा को कुरेदने वाली कुदाली थी । प्रसन्न मुख मल्हा गया, श्री उड़ गई, दिषाद छा गया चेहरे पर, अश्रुधारा बह चली, सहेलियाँ हक्का-बक्का हो उनके इस परिवर्तन का कारण क्या है ? सोच में पड़ गई। वह स्वयं विचारों में डूब गई "श्रोह, वह स्त्री धन्य है जिसके ये मूलाब से कोमल मात्र बालक क्रीडा कर रहे हैं । नारी के संतान नहीं तो उसकी शोभा ही क्या है ? लता प्रसून रहित होने पर क्या शोभित होती है ? मैं पुण्यहीन हूँ । पुण्यवान को योग्य संतान का वरदान प्राप्त होता है। इस प्रकार अनेकों विचार तरंगों में इबी उदासीन वह रानी शयनागार में जा पड़ी । सहेलियों ताड़ गई उसको मनोव्यथा को पर चारा क्या था? उन्होंने राजा को सूचना दी। रानी दीर्घ निश्वास के साथ करवटें बदल रही थी। महाराज श्रीर्षण इस अप्रत्याशित स्थिति में प्राकुल हो उठे। अनेक युक्तियों से कारण समझने की चेष्टा की । पर रानी के मौनावलम्बन से सब व्यर्थ गई । अन्त में हृदयगत भावों को जाता एक सहेली ने छत की घटना सनायो । राजा भी इस विषय से दुःखी हो गया। पर कर क्या सकता था? तो भी धैर्यावलम्बन ले समझाया, "जो वस्तु पुरुषार्थ सिद्ध नहीं हो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए । कर्मों के ऊपर किसका वश है ? : कोई तीद्र पाप कर्म ही पुत्र प्राप्ति में बाधक है। इसलिए पात्र-दान, १२६ }
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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