SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स शीघ्र ही भूल गये । उनके राज्य में ८ प्रकार का भय सर्वथा नष्ट हो गया था। दरिद्रता दूर भाग गई, घन अपनी इच्छानुसार फैल गया सर्व प्रकार मंगल और सभी सम्पदाएँ सदा उपलब्ध रहती थीं। संयमीजन, दासा जन दान देने को याचकों की खोज करते थे । अर्थात् सर्वत्र दानी ही दानी थे याचकों का नाम भी नहीं था। ठीक ही है राज्य का प्रयोजन ही है प्रजा को सूख-शान्ति होना । सर्वत्र अमन-चैन रहना । पशु-पक्षियों को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो। ऐसा ही था महाराज पद्मप्रभु का शासन । धर्म, अर्थ और काम तीनों पूरुषार्थ होड लगाये बढ़ रहे थे मोक्ष पुरुषार्थ की सिद्धि के साधक होते हुए । वैराग्य द्वार में प्रविष्ट होते ही परप्रभ राजा की दृष्टि सामने बंधे गज पर पड़ी। उसकी दयनीय दशा ने दयालू प्रभु को द्रवित कर दिया । पूर्व भव का चित्र चलचित्र की भांति उनके नयन पथ पर प्रत्यक्ष-सा हो गया । जसो क्षण के काम और दुःखद भोगों से विरक्त हो गये । वैराग्य भाव जाग्रत हो गया । संसार शरीर की निस्सारता सामने प्रागई । वे विचारने लगे, देखो इस मोह की लीला, इन मांगों की चकाचौध, मुझको भी अपने चंगुल में फंसा लिया, आयु का अधिकांश भाग बीत गया इन खोखले दृश्यों में । अब मात्र सोलह पूर्वाङ्ग कम एक लाख पूर्व की ही प्रायु रह गई है। वे विचार करने लगे इस संसार में बिना देखा हुआ क्या है ? कुछ भी नहीं । बिना स्पर्श किया, बिना संघा, बिना सूना, बिना खाया क्या है ? कुछ भी नहीं । "पञ्चेन्द्रियों" के समस्त विषय भोग डाले पर क्या साप्ति हुयी ? नहीं। कैसा अज्ञान है जीव का, इतना होने पर भी नये के समान इन्हीं उच्छिष्ट भोगों की इच्छा करता है । अनन्तों बार भोगी वस्तुओं में पुन: उनके भोग की आशा तृष्णा में फंसा दुःखी होता है । अाशा असीम है । मिथ्यात्व प्रादि से दूषित इन्द्रियों से प्रात्मा की तृप्ति नहीं होती। अतृप्ति का मूल हेतु है अशान । मैं अब इस अज्ञान का नाश करूगा । यह शरीर, रोग रूपो सपों को वामी है। सदा अहित करने वाला है फिर भला इस में रहने का क्या प्रयोजन ? पाप-पुण्यार्जन का हेतू है । इसे ही समाप्त कर देना है। जन्म-मरण का कारण ही नहीं रहेगा तो फिर दुःख कहाँ ? अब मुझे शीघ्र प्रात्महित साधन करना चाहिए । इस प्रकार प्रभु संसार, शरीर और भोगों की प्रसारसा का . १.८ ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy