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________________ . राजभवन में शहनाइयाँ बज उठी। प्रानन्द भेरी गुंजने लगी, जिधर देखो उधर, नृत्य, गान, वादित्र, बधाई, आदि नाना प्रकार के उत्सव होने लगे। भगवान के प्रवयत्रों के साथ उनका रूप सौन्दर्य बढ़ने लगा। मनि श्रुत अवधि शान स्फुरायमान होने लगे। बाल प्रभु शैशव से प्रौढता की ओर आने लगे। जन्मोत्सव समय इन्द्र ने प्रभु के अंगूठे में अमृत स्थापित कर दिया था, अब स्वर्गीय व्यञ्जन प्राने लगे। समवयस्क देवकूमार उनके साथ रमा करते थे। आपका शरीर लाल कमल के समान दैदीप्यमान था। अतः इन्द्र ने 'पद्मप्रभ'माम विख्यात क्रिया । इनकी बाल क्रीडायों ने न केवल माता-पिता को ही मुदित किया था अपितु समस्त नर-नारियों को हषित कर दिया था। बाल चन्द्रवत प्रभु अपनी कान्ति के साथ साथ गुरणों की वृद्धि को प्राप्त हुए । श्री सुमतिनाथ तीर्थङ्कर के बच्चे हजार करोड सागर काल व्यतीत होने के अनन्त र अापका उदय हुआ। इनकी श्रायु ३० लाख पूर्व भी इसी अन्तराल काल में मभित है। इनका २५० धनुष उन्नत शरीर था । स्त्रियाँ पुरुष की इच्छा करती हैं, पुरुष स्त्रियों को चाहते हैं परन्तु परमगुरु स्वरुप अनुपम चन्द्र समान पद्मप्रभु को स्त्री-पुरुष सभी ही बाहते थे । जिस प्रकार भ्रमरों की पंक्ति पानमंजरी में ही तृप्त रहती है उसी प्रकार सब लोगों की दृष्टि उनके शरीर में ही तृप्ति को पाती थी। देव देवियां सदा उनको सेवा में तत्पर रहते थे। अमन-चैन की घड़ियाँ किघर कैसे जाती रहती हैं कोई नहीं समझ पाता। साढे सात लाख पूर्व (आयुष्य का चौथाई भाग) कुमार काल में व्यतीत हो गया। माता-पिता की एक मात्र लालसा होती है संतान को विवाहित देखना। तदनुसार पधप्रभु को भी अनेकों रूपसुन्दरियों के बाहुपाश में बांध दिया गया अर्थात् अप्ति रूपवान कन्याओं के साथ विवाह कर दिया। राज्याभिषेक महाराज धरण जिस प्रकार कुशल राजा थे उसी प्रकार तत्त्वज्ञ भी थे । अपने पुत्र को योग्य देखकर आत्मसाधना की ओर प्रवृत्त हुए । पद्मप्रभ को राज्य प्रदान कर स्वयं तप साधना में रत हो गये। इधर पमकुमार ने अपनी न्याय प्रियता, प्रजावत्सलता, कुशल व्यवहार से प्रजा को संतानवत अपना लिया जिससे वे घर राजा के वियोग को
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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