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लगती है ? राज भवन में महारानी "मुसीमा" का सौन्दर्य प्रकृति की छवि को तिरस्कृत कर रहा था । शनैः शनैः नव मास पूर्ण हो गये। कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी की पुण्यवेला, मघा नक्षत्र में बिना किसी पीडा के, अानन्दोल्लास के साथ, अनुपम लावण्य युक्त बालक का जन्म हुआ। अधो, मध्य और कल तीनों लोक हर्ष सागर में डूब गये एक क्षरण के लिए । निमिष मात्र भी जिन्हें शान्ति नहीं वे नारकी भी एक समय को आनन्द विभोर हो गये, मानों वायरलैस से वहाँ सूचना मिल गई हो ।
स्वर्ग लोक का क्या कहना? इन्द्र भी अपने भोगों को छोड प्रादुर हो जठा भगवान की रूपराशि को देखने के लिए प्रानो, चलो, यान, वाहन तैयार करो, ऐरावत मज कहाँ है ? शचि देवी प्राइये, चलिधे इत्यादि शब्दों का कोलाहल मच गया ऊर्य लोक में । सात प्रकार की सेना सज्जित हो गई । प्रत्येक देव देवी मानन्द विभोर हो प्रभु का जन्मोत्सव मनाने को आतुर हो उठे।
प्रत्येक व्यक्ति जिस प्रकार सर्वथा, निर्दोष या सदोष नहीं होता उसी प्रकार प्राप्येक घटना भी सम्पूर्ण रूप से एकान्तपने से सुखद और दुखद नहीं होती। यद्यपि प्रभु के जन्म से लीनों लोक में आनन्द छा गया परन्तु मोह राज थर-थर कांपने लगा। दोषों के समूह तितरवितर हो गये । कामदेव न जाने कहाँ छिपने को भागा जा रहा था। इधर यह भगदड़ मची उधर देवेन्द्र प्रा अहुंचा राज प्रांगण में धूम-घाम, साज-बाज और नृत्य गान के साथ । "नवेभवेत्प्रीति' के अनुसार अत्यातुर शचिदेवी ने प्रसुतिग्रह में प्रवेश किया । बालक के शरीर की कान्ति से प्रकाशित कक्ष में माता को माया निद्राभिभूत कर इन्द्राणी बाल प्रभु को ले आयी। रूपराशि के निरीक्षण से अतृप्त इन्द्र ने १ हजार नेत्र बनाकर सौन्दर्यावलोकन किया । संभ्रम के साथ सुमेरूपर्वत पर ले जाकर १०० क्षीर जल कलशों से भगवान का जन्माभिषेक किया, पुनः समस्त देव देवियों ने अभिषेक कर इन्द्राणी ने अनुपम दिव्य वस्त्राभूषण पहना कर निरंजन प्रभु को अञ्जन लगाया, कुंकुम तिलक लगाकर रत्नदीपों से प्रारती उतारी। विविध उत्सवों के साथ राजभवन प्राकर बालक को माता की गोद में देकर मानन्द नाटक किया और सानन्द स्वर्ग घाम को लौट गये ।