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________________ पायीं दे रत्न किरणें । अगिन जग-मगा उठा दिव्य रत्नों के प्रकाश से । जो आता ले जाता कौन रोकता वहाँ ? क्यों कि नित्य का यही तो क्रम था कि तीनों संध्याओं में १२।। करोड दिव्य रल वृष्टि होती । सुख की घडियो जाते देर नहीं लगती। पलभर के समान पूर्ण हो गये छ महीने । माघ कृष्णा षष्ठी का सूहाना दिन आ गया। महादेवी सुसीमा सुखनिद्रा में विचरण कर रही थी। पिछली रात्रि में हाथी आदि १६ स्वप्न देखें । अन्त में अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए बृषभ-वैल को देखा । निद्रा भंग हुयी पर तन्द्रा नहीं थी। मन उल्लास भरा था । मगर में स्फति थी। सिद्ध परमेष्ठी के नामोच्चार के साथ या त्यागी । शीघ्र नित्य क्रिया कर प्रसन्न वदना अपने पति महाराज 'धरा' के पास राजसभा में पधारी और स्वप्नों का फल ज्ञात करने की प्रभिलाषा की । "लोक्याधिपति पुत्र होगा” इस प्रकार राजा ने भी स्वप्नों का फल कहा । दम्पति हर्ष से प्रत्यक्ष पुत्र दर्शन की प्राशा में डूब गये। पुण्य से पुण्य बढ़ता है यह विचार चतुमित काय देवेन्द्र देव और देवियों ने प्राकर गर्भकल्याणक महोत्सव सम्पन्न किया । ५६ कुमारियों माता की सेवा में तत्पर हुयीं। गर्भ की वृद्धि के साथ माता का रूप लावण्य, बुद्धि ज्ञान पराक्रम भी बढ़ने लगा । चारों ओर हर्ष का साम्राज्य छा गया। अन्मोत्सव शरद काल जितना सुहाना है उतना ही सुखद भी। वर्षा ऋतु की कीचड इस समय शमिन हो जाती है, चारों ओर कास के काम धवल चादर से भूमण्डल पर विछ जाते हैं मानों जिन शासन का यशोगान ही कर रहे हों। इस काल में जन मानस भी प्रफूल्ल हो जाते हैं। क्योंकि वर्षा काल की झडी और अंधियारी, डरावनी रात एवं बादलों की घडपड़ाहट अब नहीं रहती। भय का भूत भाग जाता है। दान-पूजा, प्रादि निविन चलने लगते हैं। प्रमाद निकल भागता है । मोद भाव जाग्रत हो जाता है। चारों ओर हरिलिमा छा गई। नद, नदी स्वच्छ · : जल से परिपूर्ण हो गये । नाना प्रकार के सुन्दर पक्षियों का कलरव होने लगा। कौशाम्बी नगरी के कूप, तडाग, उपवन क्षेत्र अनुपम शोभा से शोभित होने लगे । एक मास पूरा हो गया। देखते ही देखते इस ऋतु का द्वितीय महीना आ गया । आमोद-प्रमोद की.घड़ियाँ जाने में, क्या देर [ १०५
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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