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________________ पराक्रम या शूरता की शोभा है, सत्य और न्याय । सत्य और न्याय की स्थिति का हेतु है त्याग और दान । अपराजित इन गुणों से सम्पन था | अतः सतत् सुभिक्ष से राज में दरिद्रता श्राकाश कुसुमवत थी । पहले जो दरिद्र था वह आज कुबेर समान बन गया। साथ ही रूप, लावण्य, सौभाग्य के साथ प्रजा धर्म-निष्ठ, दान-पूजा में तत्पर और ज्ञान-ध्यान में संलग्न थी, क्योंकि राजा अपराजित स्वयं इन गुणों में अद्वितीय थे। राजा षड्गुणों से सम्पन्न था। अनेक भक्षों में उपार्जित पुण्य के उदय से प्राप्त राजवैभव का उपभोग अपने भाई-बन्धुओं को बाँट कर करने से उसका उदय उत्तरोत्तर बढ़ रहा था तो भी उसकी frरुत्सुक बुद्धि थी । समय चला जा रहा था । श्रपराजित की सम्यक दृष्टि में न केवल काल ही क्षणिक था अपितु संसार के समस्त पदार्थ क्षणभंगुर प्रतीत होते थे। ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा समस्त पदार्थ क्षणभंगुर हैं। यह निश्चय कर उसने अपने ध्रुव आत्म स्वरुप की सिद्धि का विचार किया। वैराग्य जगे तो सांसारिक वैभव तृणवत् है, बस क्या था राजा अपराजित ने अपने पुत्र सुमित्र को राज्यभार दे स्वयं श्री पिहिताश्रव मुनीन्द्र के शिष्य बन गये । कुछ ही समय में ग्यारह अङ्ग के पारगामी हो षोडशकारण भावना के बल से तीर्थकर गोत्र बन्ध कर ग्रायु के अन्त में समाधिमरा कर नववें ग्रैवेयक के प्रीतिकर' विमान में ३१ सागर की आयु वाले अहमिन्द्र पर्याय को प्राप्त किया। वहाँ उनका दो हाथ प्रभारण शरीर शुक्ल लेया थी। इकतीस पक्ष में प्रवास लेते थे । इकतीस हजार वर्ष बाद मानसिक ग्राहार करते थे । तथा ७ वीं पृथ्वी तक अवधिज्ञान था । इस प्रकार वह अप्रविचार सुखों का अनुभव करने लगा । गर्भावतरण - www. "भाग्यं फलति सर्वत्र नं च विद्या न पौरुषम्" पूर्व संचित पुण्य अपना सौरभ बिखेरता है । अहमिन्द्र लोक में रहते हुए जब ग्रायु के छ माह मात्र अवशेष रह गये तो मर्त्यलोक में उसका पुण्य प्रकाश फैलने लगा । जम्बूदीप के भरत क्षेत्र में कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशी, काश्यप गोत्री महाराजा 'घर' और महारानी सुसीमा के आंगन में १०४ ]
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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