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________________ का प्रभाव रहा प्रतीत होता है। उनमें से शिवस्कन्नद्रवर्मन आगमों के टीकाकार जैनाचार्य बप्पदेव का भक्त रहा, प्रतीत होता है। पल्लवों का राज्य चिह्न वृषभ था, अत: वे वृषध्वज भी कहलाये । सम्भन है कि प्रारम्भ में उममें वृषभलांछन ऋषभदेव (आदितीर्थकर) की पूजा-उपासना विशेष रही हो। इस वंश का एक प्रसिद्ध नरेश सिंहयमन द्वितीय था, जिसके राज्य के 22वें वर्ष में शक 380 (सन 458 ई. में पाणराष्ट्र के पाटलिक नाम के जिनालय में बराचार्य सर्वनन्दि ने अपना प्राकृत भाषा का 'लोक-विभाग' ग्रन्थ रचकर पूर्ण किया था। समय के साथ पल्लव वंश की शाखा, उपशाखाएँ होती रहीं 1 तीसरी शाखा में उत्पन्न सिंहविष्णु का उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन प्रथम {600-630 ई.) प्रसिद्ध प्रतापी एवं पराक्रमी नरेश था । वह जैनधर्म का अनुयायी था। कई जिनमन्दिर तथा सित्तनवासल के प्रसिद्ध जैनगुहामन्दिर उसी ने बनवाये थे, जिनमें श्रेष्ठ भित्तिचित्र भी प्राप्त हुए हैं। इन चैत्यालयों का निर्माण कराने के कारण उसे 'चैत्यकन्दप उपाधि प्राप्त हुई थी। उत्त प्रदेश में कृत्रिम गुहामन्दिर बनवानेवाला सम्भवतया वहीं सर्वप्रथम नरेश धा। शैय-सन्त अप्पर के, जो स्वयं पहले जैनधर्मानुयाय ही था, प्रभाव में आकर यह राजा शैव हो गया था, और तब उसने जैनों पर अयाचार किये, उनके स्थान में शैवनयनारों को प्रश्रय और प्रोत्साहम दिया, शवमन्दिर इनवाये और कई जिनमन्दिरों को भी शैवमन्दिरों में परिवर्तित किया। तदनन्तर इस र्थश के अधिकांश राजे शैव ही हाए, जिनमें से कुछ जैनधर्म के कट्टर विरोधी, तो कुछ अपेक्षाकृत सहिष्ण रहे। जैनधर्म और उसके अनुयायी अल्पाधिक संख्या में उस राज्य में बराबर बने रहे। दसवीं शती में पल्लव-राज्य का अन्त हो गया। पल्लवों की ही एक शाखा नौलम्बवाड़ी के नोलम्बों की थी, और उनमें जैनधर्म की प्रवृत्ति प्रायः निरन्तर बनी रही। अन्तिम पल्लवनरेशी में नन्दिवर्मन तृतीय (844-60 ई.) का पुत्र एवं उसराधिकारी, जिसकी जननी शंखादेवी राष्ट्रकुट सम्राट अमोघवर्ष प्रथम की पुत्री थी, अपने नाना की ही भाँति जैनधर्म का समर्थक था। उसने पाण्ड्य-नरेश श्रीमारन को पराजित करके उसकी राजधानी मदुग को भी लूटा था। वातापी के पश्चिमी चालुक्य पाँचीं शती ई. के मध्य के लगभग दक्षिण भारत के महाराष्ट्र प्रदेश में इस राज्यशक्ति का उदय हुआ । छठी में उसने पल पकड़ा और सातवीं में तो दक्षिणापथ के ही नहीं, वरन् सम्पूर्ण भारतवर्ष के उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली एवं समृद्ध साम्राज्य में बह परिणत हो गयी। वंश का मूलपुरुष अयोध्या का कोई सोमवंशी क्षत्रियकुमार बताया जाता है, जो अपने भाग्य की परीक्षा के लिए दक्षिण में आधा था। इस घंश में सर्वप्रथम नाम विजयादित्य मिलला है जो उसी व्यक्ति अश्या उसके पुत्र का था। उसने पल्लवराज्य के एक छोटे-से भाग पर अधिकार करके अपनी गंग कदम्ब-पल्लव-चालुक्य :: 105
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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