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पुत्र मृगेश द्वारा निर्मापित जिनालय में प्रतिवर्ष अष्टाहिका महोत्सव और महामह पूजा एवं जिनाभिषेक किये जाने, तथा उससे बधे द्रव्य से समस्त संघ को भोजन कराने के लिए कुन्दुर विषय का वसुन्तवाटक ग्राम कूर्चक सम्प्रदाय के वारिषेण्यासार्य-संग को, चन्द्रक्षान्त नामक मुनि को प्रमुख बनाकर, प्रदान किया था राजा उस समय उच्चभैगो दुर्ग में था। इस ताम्रशासन में राजा के लिए जो विशेषण दिये हैं, उनसे वह विद्वान, बुद्धिमान्, शास्त्रज्ञ और पराक्रमी वीर रहा प्रतीत होता है। राज्य के पाँच वर्ष में इस सर्व प्रजा-हृदय-कुमुद चन्द्रमा महाराज हरिवमा ने अपने सामन्त, सेन्द्रककुलतिलक राजन् भानुशक्ति की प्रेरणा से अहिरिरीष्ट नाम के श्रवण-संघ के उस चैत्यालय की पूजा संस्कार के लिए, जिसके अधिष्ठाता आश्चर्य धर्मनन्दी धे, तथा साधुजनों के उपयोग के लिए मरद नामक ग्राम का दान दिया था। हरिवर्मन की मृत्यु के कुछ ही वर्षों के पश्चात् ही कदम्बों की राज्यसता समाप्त हो गयी।
युवराज देववर्मन-त्रिपर्वत शाखा के कृष्णवर्मन का प्रिय पुत्र था। उसने एक दामपत्र द्वारा अपने पुण्य फल की आकांक्षा से 'तीन लोक के प्राणियों के हित के लिए उपदेश देकर धर्मप्रवर्तन करनेवाले अर्हन्त भगवान् के चैत्वालय के मान-संस्कार (रख-रखाव, मरम्मत आदि) तथा भगवान की पूजा-अची और प्रभावना के हेतु सिद्धकेदार के राजमान्य यापनीय-संघ को त्रिपर्वत-क्षेत्र की कुछ भूमि प्रदान की थी। अभिलेख में उक्त देवमन की कद-कुल केतु, राय, लापार, व्या त्यापन से पवित्र हुआ, पुण्य गुणों का इच्छुक कहा है। देववर्मन सम्भवतया उपर्युक्त हरिवर्मन का समकालीन या उससे कुछ पहले हुआ लगता है।
इस प्रकार अपने समय में कदम्ब राज्य एक सुशासित, सुव्यवस्थित, शान्ति और समृद्धि पूर्ण राज्य था। ऋदम्ब नरेशों की स्वर्णमुद्राएँ अति श्रेष्ठ मानी जाती हैं। उनके समय में विविध जैन साधु-संघ और संस्थाएँ सजीव एवं प्रगतिशील थीं। वे राजा तथा प्रजा की लौकिक उन्नति एवं मैतिकता में साधक और सहायक थीं। जैनधर्म का अच्छा उद्योत था। उसके विभिन्न सम्प्रदाव-उपसम्प्रदाय परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते हुए स्व-पर कल्याण करते थे। पल्लव वंश
इक्षिण भारत के घर पूर्वी तट पर समिलनाइ में दूसरी शती ई. के उत्तरार्ध में पल्लव वंश की स्थापना हुई। काँची (दक्षिण काशी या कांजीवरम) उसकी राजधानी थी। तब यह प्रदेश तोण्डेय-मण्डलम् कहलाता था। पल्लव वंश का संस्थापक उस कीलिकवर्मन घोल का ही एक पुत्र था, जिसके एक अन्य पुत्र शान्तिकर्म जैनाचार्य समन्तभद्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। समन्तभद्र अपना परिचय 'काञ्च्यां नग्नाटकोऽहम्' (मैं कांची का दिगम्बर सन्त हूँ) रूप में ही सर्वत्र देते थे। अतएव प्रारम्भिक परालय राजाओं पर तथा उनकी प्रजा के पर्याप्त भाग पर स्वामी समन्तभद्र और उनके धर्म
104 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं