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________________ जिसपर कृपा के बाद, उसके पुत्र बिषगुवर्मन का अधिकार हुआ, किन्तु मृगेशवमन की शक्ति, प्रताप और प्रतिष्ठा में विशेष अन्तर नहीं आया। मृगेशवर्मन के पश्चात् उसकी प्रियपत्नी कैकय-राजकन्या प्रभावती से उत्पन्न पुत्र रविवर्मन राजा हुआ। रविवर्मन कदम्ब (478-520 ई.)-छोटी आयु में ही गद्दी पर बैठा था, अतएव प्रारम्भ में आने वाला मानधातानि के संरक्षण में तथा लदनन्तर वयस्क होने पर उसने स्वतन्त्र राज्य किया। त्रिपर्वत शाखा के कदम्थों को उसने सफलतापूर्वक दबाये रखा और अन्ततः उक्त शाखा के अधीनस्थ प्रदेश पर अधिकार करके राज्यविस्तार पूर्ववत् बना लिया। गंगों को उसने मित्र बनाये रखा और पल्लवों को पराजित करके अपनी प्रतिष्ठा बढ़ायी। इस प्रकार रविवर्मन कदम्ब वंश का एक सुयोग्य एवं प्रतापी नरेश था, और साथ ही जैनधर्म का भी परम भक्त था, शायद कदम्बों में उससे अधिक उत्साही जैन अन्य कोई नहीं हुआ। उसने अपने हल्सी दानपत्र द्वारा अपने पूर्वजों, काकुत्स्थवर्मन, शान्तिवर्मन और मृगेशवर्मन द्वारा दिये गये जैन दानों की पुष्टि एवं पुनरावृत्ति की, और अपने माता-पिता के पुण्य के लिए प्रतिवर्ष कातिकी-अष्टालिका का पर्व समारोहपूर्वक मनाया जाने के लिए पुरुखेटक नाम का गाँव दामकीर्ति के पुत्र आचार्य बन्धुषेण को दान किया था, और यायनीव-संघ के महान शास्त्रज्ञ एवं लपस्वी कुमारदत्तसूरि का सम्मान किया था। उसने ऐसी व्यवस्था भी की थी कि राजधानी पलाशिका के राजजिनालय में जिनेन्द्र की पूजा निरन्तर होती रहे। हसी के ही एक अन्य दानपत्र के अनुसार राजा ने स्वगुरु धर्ममूर्ति दामकीर्ति भोज़क की माता के चरणों के प्रसाद से (उनकी प्रेरणा से) दामकीर्ति के छोटे भाई श्रीकीर्ति को भगवान् जिनेन्द्र की पूजा-प्रभावना के लिए चार निवर्तन भूमि का नाम दिया था। इस लेख में रविवर्मन के युद्ध-पराक्रमों एवं उसके द्वारा कांचीनरेश चण्डदण्ड को पराजित किये जाने का भी उल्लेख है। इस नृपति ने ऐसी भी व्यवस्था की थी कि कार्तिकी पूर्णिमा को वार्षिक नन्दीश्वर महोत्सव पनाया जाए, धर्मबुद्धि प्रजाजन और नागरिक भगवान् जिनेन्द्रदेव की पूजन नित्य निरन्तर करते रहें और चातुर्मास्य में साधुजनों के आहारदान आदिक में कोई बाधा न आए । लेख में उसे कदम्बकुल-गमन-भास्कर कहा है, जो उचित ही है। उसी के आसनकाल के ग्यारह वर्ष में उसके छोटे भाई भानुधर्मा ने जो पलाशिका का स्थानीय शासक धा, राज-जिनालय में तथा अन्यत्र प्रत्येक पूर्णिमा के दिन भगवान् जिनेन्द्र की अभिषेकपूर्वक विशिष्ट पूजा किये जाने के लिए परम अर्हद्भक्त पर भोजक की प्रेरणा से, सम्भवतया उसी को, 15 निवर्तन भूमि का दान दिया था। हरिवर्मन कदम्ब (520-540 ई.)---रविवर्मन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी, कदम्बयंश का अन्तिम महानु नरेश और अपने पूर्वजों की ही भांति जैनधर्म का भक्त था । अपने राज्य के चौथे वर्ष में लिखाये गये दानपत्र के अनुसार इस नरेश ने अपने चाचा शिवरथ को प्रेरणा से पलाशिका नगरी में भारद्वाज-गोत्रीय सिंह सेनापति के गंग-कदम्ब पल्लव-चालुक्य :: 108
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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