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कलिमंग के उपरान्त भी मंगवंश किसी न किसी रूप में प्राय: 11वीं शली तक चलता रहा। पैरिवी, कैरवि, पासिण्डि, पूर्वी या कलिंगी आदि कई शाखाओं में यह वंश पहले ही बँट चुका था, और भी शाखा-प्रशाखाएँ हुई। मंगवश में उत्पन्न अनेक व्यक्ति स्वयं गंगराग्य, उसके शारखा राज्यों तथा अन्य भी चालुक्य, चोल, होयसल, विजयनगर आदि दक्षिणी राज्यों के सामन्त सरदार होते रहे।
इस प्रकार इक्षिण भारत का गंगवंश एक सर्वाधिक दीर्घजीवी राजवंश रहा, साधिक एक सहस्र वर्ष पर्यन्त अविछिन्न बना रहा। बीच-बीच में उसने साम्राज्य शक्ति का रूप भी धारण किया, चिरकाल तक एक महत्वपूर्ण एवं बलवान् राज्यसत्ता का स्वामी तो वह बना ही रहा। उसका कुलधर्म और बहुधा राज्यधर्म भी जिनशासन ही रहा, जिसके संरक्षण और प्रभावना के लिए वंश के अनेक पुरुषों, महिलाओं, सामन्त-सरदारों, राज्यकर्मचारी और राज्य की जनता ने यथाशक्ति प्रयल किया। फलस्वरूप उस काल एवं प्रदेश में जैन संघ सशक्त बना रहा, अनेक प्रसिद्ध आचार्य, मुनि-आर्यिका आदि त्यागी महात्मा हुए, अनेक विद्वानों और कवियों ने कन्नई, तमिल, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं में विविध विषयक विपुल साहित्य का निर्माण किया। जैन साधुओं ने लोक-शिक्षा में प्रधान योग दिया, राजाओं का यथावश्यक पथप्रदर्शक किया, जनता के नैतिक स्तर की उन्नत बनाये रखा और अनेक लोकोपकारी कार्य किये। कई धर्पतीर्थ विकसित हुए और गंगनरेशों द्वारा तथा उनके प्रश्रय में निर्मापित भव्य जिनालयों के रूप में मूर्त एवं शिल्प-स्थापत्य की अनेक दर्शनीय एवं मनोश कलाकृतियों उदय में आयी।
वीरमार्तण्ड चामुण्डराय-मारी विपतियों एवं नानाविध अव्यवस्थाओं से भरा हुआ गंग-इतिहास का सन्ध्याकाल गंगनरेश जगदेकवीर-धर्मावतार-राघपल्ल-सत्यवाक्य नातुर्थ के अद्वितीय मन्त्री एवं महासेनापति चामुण्डराय (चावुण्डराय) के कारण अमर हो गया। डॉ. सालासोर के शब्दों में उनसे बड़ा वीर योद्धा, उनसे बड़ा परम जिनेन्द्र मक्त और उन जैसा सत्यनिष्ठ सज्जन कर्णाटक देश में दूसरा नहीं हुआ। ब्रह्मक्षत्रिय कुल में उत्पन्न इस महान् राजनीतिज्ञ, सुदक्ष सैन्यसंचालंक, परमस्वामिभक्त, सम्मष्ठ, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के महान विद्वान, कवि एवं ग्रन्थकार, सिद्धान्तन एवं कलामर्मज्ञ, विद्वानों और कलाकारों के प्रश्रयदाता, अदभुत निर्माणकता और जैनधर्म के प्रभावकों में अग्रिम, महादण्डनायक जैसे अत्यन्त विरल पुरुषरत्न का लाभ गंगनरेशों को उस समय प्राप्त हुआ जबकि स्वयं उनका भाग्यसूर्य अस्ताचलगामी था। ऐसी विषम विरुद्ध परिस्थितियों में भी इस द्रुतवेग से पतनशील देश की अभिभावकता एवं रक्षा, साथ ही उसके अधिपति पतनोन्मुख राष्ट्रकूट सम्राटों का भी संरक्षण मुण्डसय ने यथाशक्ति प्रायः सफलतापूर्वक किया। चाहता तो यह स्वयं गंगराज्य का अधिपति हो सकता था। वह राधमल्ल ही नहीं, उसके पूर्वज मारसिंह और उत्तराधिकारी एस्कसगंग का भी समभात्री एर्च सेनापति रहा | मारसिंह
98 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ