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निपिल मुक्करवसति, परुदेवी-गृ. चन्द्रिकापिका-देवालय, राथराचमालवमति, श्रीविजयवमति, गंगपेमडियालय आदि अनेक जिनमन्दिर थे, अपने नाम से गंगकन्दर्पमूपाल-जिनेन्द्र-मन्दिर नाम का भव्य जिनालय बनवाया था और उसके निमित्त देवमण के आचार्य देवेन्द्र मट्टारक के प्रशिष्य तथा शुकदेवयोगि के शिष्य जयदेव-पण्डित को ग्रामादि प्रभूत दान दिया था 1 श्रवणबेलगोल के चिक्क पर स्थित कूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ पर 974 ई. की इस नरेश को प्रशस्ति से प्रकट है कि इस महाराज मारसिंह ने अपने अधिपति राष्ट्रकूट कृष्ण तु. के लिए मुर्जरदेश को विजय किया था, मालवा पर आक्रमण करके सियक परमार को पराजित किया था, कृष्ण के सबल शत्रु अल्ल का वमन किया, विन्ध्य प्रदेश के किरातों को छिन्न-भिन्न किया, शिलाहार विजल से युद्ध किया, बनवासि के राजाओं को पराजित किया, मातुसे का दमन किया. उन्चंगी के सुदृढ़ दुर्ग को हस्तगत किया, सयर राजकुमार नरग को नष्ट किया, चालुक्य विजयादिस्य का अन्त किया, रों, चीलों और पाण्ड़यों का दमन किया, मान्यखेट में चक्रवर्ती (क) के कटक की रक्षा की, इत्यादि। वस्तुतः इस काल में गंगनरेश ही राष्ट्रकूट साम्राज्य के संरक्षक थे। यधपि नाम के लिए वह राष्ट्रकूटों के महासामन्त या अधीनस्थ मागतिक भूपाल मात्र थे। मासिंह के उपर्युक्त पराक्रमपूर्ण कार्यकलापों का उल्लेख करने के पश्चात् उक्त अभिलेख में बताया है कि इस नृपति ने जैनधर्म का अनुपम उद्योत किया था जिनेन्द्रदेव के सिद्धान्त को सुनियोजित किया था, और अनेक स्थानों में दर्शनीय जिनमन्दिरों तथा मानस्तम्भों का निर्माण कराया था। परोपकार के कार्य उसने अनगिनत किये थे। इस प्रकार इस कर्मशूर एवं धर्मशूर ने अपने लगभग चौदष्ट वर्ष के राज्यकाल में राण्यधर्म का सफलतापूर्वक पालन करते हुए और साथ ही शक्तिपूर्वक्र अनेक धर्मकार्य करते हुए आत्मसाधन के लक्ष्य को भी विस्मृत नहीं किया। फलतः 974 ई, में राज्य का परित्याग करके शेष जीधन उदासीन श्रावक के रूप में बिताया। अन्त में एक यर्थ पीसते म धीतते इस राजर्षि ने तीन दिवस की सल्लेखनापूर्वक बंकापुर में अपने गुरु अजितमेम भट्टारक के चरणों में समाधिमरण किया। कुडुलूर दानपत्र में लिखा है कि जिन-पदाम्बुज मधुकर एवं गुरुभक्त महाराज मारसिंह परहित-साधन में आनन्द लेता था, परधन एवं परस्त्री का यह त्यागी था, सम्जनों की निन्दा सुनने में बधिर था, मुनियों और ब्राह्मणों को दान देने में तथा शरणागतों को अभयदान करने में सदैव तत्पर रहता था। वह उच्चकोदि का विद्वान भी था; दर्शन, तर्क, ध्याकरण, साहित्य, अश्वविद्या, गजविद्या आदि में निष्णात था। नागवर्म और केशिराज-जैसे कवियों ने उसकी प्रतिमा की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है। वह विद्वानों का संरक्षक था और गुरुओं की सदा विनय करता था। उसके श्रुतगुरु या विधागुरु मंजार्य वादिषंगलभ थे, जो श्रीधरभट्ट नामक ब्राह्मण पण्डित के पुत्र थे और स्वयं सिद्धान्त, दर्शन, न्याय, ताक, थ्याकरण, सजमर्शते आदि विविध विषयों के महापण्डित
g6 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और पाहेलाएँ