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का उसे चाव था। एक बौद्ध विद्वान् के साथ भी उसके शास्त्रार्थ करने का उल्लेख मिलता है। एकान्त-पत-मदोद्धत कुवादि- कुम्भीन्द्र कुम्भ-सम्मेद नैगमनयादिकुलिशेरकरोज्जयदुत्तरंग - नृप जैसे उसके विरुद सार्थक थे। अपने 938 के सूदी (जिला धारवाड़ ) ताम्रशासन के अनुसार इस नरेश ने अपनी प्रिय पत्नी 'सम्यग्दर्शनविशुद्ध-प्रत्यक्ष देवा' रानो दीवालाम्बा द्वारा सुल्धादवी सालग्राम क्षेत्र के बन्दी नामका प्रभारी निर्माति जिनालय के संरक्षण के लिए तथा वहाँ निवास करनेवाली छह श्रमण आर्यिकाओं के दान-सम्मान के लिए गुरु नागदेव पण्डित को स्वयं पादप्रक्षालन करके, 'कार्तिक-नीश्वर शुक्लपक्ष की अष्टमी, आदित्यवार के दिन यह बृहत् दान दिया था। इस अभिलेख में राजा के अनेक वीरतापूर्ण कार्यकलापों एवं विजयों का भी उल्लेख है । सन् 950 ई. के अतकूर दानपत्र में बूतुग द्वारा चोलों की पराजय और उनके सेनापति चोल राजकुमार के मारे जाने का भी उल्लेख है। उसके कुडलूर araपत्र से प्रकट है कि उसके परिवार के अन्य सदस्य भी जैनधर्म के भक्त और धर्मात्मा थे। राजा की बड़ी बहन पामब्बे, जो पेदियर दोरपय्य की ज्येष्ठ रानी थी, ast विदुषी थी और गुणचन्द्र भट्टारक तथा आर्यिका नाणकन्ति की शिष्या थी । इस धर्मात्मा राजमहिला ने आर्यिका के रूप में तीस वर्ष तपस्या की थी और अन्त में (971 ई. में) समाधिमरणपूर्वक देह का त्याग किया था। इस देवी की आर्यिका दीक्षा की घटना का महाराज बूनुग के हृदय पर भी गहरा प्रभाव पड़ा था।
गंगराज मरुलदेव ( 953-961 ई.)- राष्ट्रकूट राजकुमारी रेवा से उत्पन्न ब्रूतुग द्वितीय का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था । उसका विवाह अपनी ममेरी बहन बीजब्बे के साथ हुआ था, जो राष्ट्रकूट कृष्ण तृतीय की पुत्री थी। इस उपलक्ष्य में मरुलदेव को एक राजच्छत्र भी प्राप्त हुआ था। स्वयं उसकी बहन सोमिदेवी उक्त राष्ट्रकूट सम्राट् के पुत्र से विवाही थी, जिससे इन्द्र चतुर्थ उत्पन्न हुआ था। राष्ट्रकूटों के साथ कई पीढ़ियों से चले आते इन विवाह सम्बन्धों ने गंगनरेशों की शक्ति पर्याप्त बढ़ा दी थी, जिससे वे पल्लवों, चोलों और बेंग के चालुक्यों- जैसे प्रबल विरोधियों से सफलतापूर्वक लोहा ले सके। मरुतदेव परम जिनभक्त था। शिलालेखों में उसे 'जिन चरण-कमल-चंचरीक' कहा है।
गंगनरेश मारसिंह (961-974 ई.) - मरुलदेव का सौतेला भाई था जो उसके पश्चात् राजा हुआ। गंगवंश का यह अन्तिम महानू नरेश बड़ा प्रतायी था । उसको शक्ति, प्रतिष्ठा और राज्य का विस्तार भी बहुत बड़े-बड़े थे। शिलालेखों में उसके गुत्तियगंग, गंगकन्दर्प, गंमविद्याधर, गंगवज्र, गंगचूडामणि, पराक्रमसिंह, नोलम्ब-कुलान्तक, पल्लवमल्ल, माण्डलिकत्रिनेत्र, सत्यवाक्य- कोगुणिवर्म-धर्म-महाराजाधिराज परमेश्वर इत्यादि विरुद प्राप्त होते हैं। एक अभिलेख में उसे 'भवनैकमंगल जिनेन्द्र-नित्याभिषेक - रत्नकलश' बताया है। सन् 968 ई. के इसी लक्ष्मेश्वर शिलालेख के अनुसार उसने पुलिगेरे ( लक्ष्मेश्वर) की उस शंखवसति तीर्थ-मण्डल में, जहाँ पूर्ववर्ती गंग-नरेशों द्वारा
गंग-कदम्ब-पल्लव- चालुक्य 95