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चारों दिशाओं में वृद्धिंगत था' सामन्त सान्तररस की सम्मति से मनलेयार नामक राजपुरुष ने कनकगिरितीर्थ के जिनभवन को दुमना बड़ा करके उसके लिए, स्वयं महाराज की उपस्थिति में, लिप्पेयूर नामक स्थान में कनकसेन भट्टारक को विविधि प्रकार का डान उक्त बसदि के लिए दिया था। अपने राज्यकाल में स्वयं इस रामा ने भी मुइहल्लि और तौरभबु के जिनमन्दिरों को दान दिये थे। चालुक्य राजकुमारी जकम्बा उसकी रानी थी, और पल्लवों के विरुद्ध युद्ध करके उसने अनेक दुर्ग जीते थे। उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी वीरवेष्डंग नरसिंह सत्यवाक्य का शासन अल्पकालीन रहा। इसके गुरु द्रविड़संघी विमलचन्द्राचार्य थे। इस राजा के दो पुत्र थे-राधमल्ल सत्यवाक्य और बुतुगगंग ।
राचमल्ल सत्यवाक्य तृतीय-यह राजा कच्छेवर्मम भी कहलाता था । लगभग 120 ई. में वह गद्दी पर बैठा । सम्भवतया यह निःसन्तान था और उसके समय में ही उसका अनुज अतुगगम युवराज था जो परमवीर था। सचमल्ल ने बैंगि के चालुक्यों को युद्ध में पराजित किया। अपनी और अपने अनुज की युद्धों में प्राप्त सफलताओं के कारण, सम्बद है, सने राष्ट्रवालको मुक्त होने का प्रयत्न किया। अतएव सम्राट् की सेना ने गंगराज्य पर आक्रमण कर दिया और उस युद्ध में ग्रह राजा राचमल्ल धीरगति को प्राप्त हुआ। तदनन्तर उसका भाई यूतुग राजा हुआ। यह सजा भी जन था।
बूलुग द्वितीय गंग-गांगेय-गंगारायण, नन्निवगंग, जबदत्तरंग, सत्यनीति-वाक्य, कोगुणिवर्म-महाराजाधिराज-परमेश्वर आदि उपाधिधारक यह नरेश बड़ा युद्धवीर, पराक्रमी, प्रतापी और प्रभावशाली शासक था। प्रारम्भ में राष्ट्रकूटों की ही सहायता एवं सद्भावना से यह सिंहासनासीन हुआ और लगभग 997 से 953 ई. पर्यन्न उसी राज्य किया। उसकी तीन रानियाँ थीं, जिनमें से प्रथम तो राष्ट्रकूट सम्राट् अमोघवर्ष तृतीय की पुत्री तथा कृष्ण तृतीय को बड़ी बहन रेया थी, दूसरी कलम्बरती नामक राजकुमारी थी और तीसरी डहाइवेश के स्वामी बुद्देग की पुत्री दीक्लाम्बा थी। राष्ट्रकूट राजकुमारी के साथ उसने पुलिगेरे, बेलबोला, किसुकद, यगे आदि विषय (लिले) दहेज में प्राप्त किये थे। अपने श्वसुर बग की मृत्यु होने पर उसने उसके राज्य को लल्लेय के पंजे से निकालकर अपने अधिपाले राष्ट्रकूटसम्राटू कृपा तृतीय के लिए प्राप्त कर लिया था। अनयपुर के कंकराज, बनवासि के बिज्ज-दन्तिवर्मन, नुलुवगिरि के दामरि तथा राजवर्मा, नागवर्मा आदि राजाओं में उसने अपने पराक्रम से भय उत्पन्न कर दिया था। उसने संजापुरी (संजौर) का घेरा डाला और राजादित्य को पराजित किया तथा नालकोटे के पहाड़ी दुर्ग को जलाकर 'भस्म कर दिया। एक अन्य युद्ध में उसने उक्त घोल नृपति राजादित्य को मार डाला था। जैनधर्म का यह गंगनरेश परम भक्त था। जैन मन्दिरों और जैन गुरूओं को उसने अनेक दान दिये थे। जैन सिद्धान्त का भी वह सोडत था और परवादियों के साथ शास्त्रार्थ करने
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4 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन युरुष और महिलाएँ
Maduatha.....