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झानपत्र के द्वारा इस शासक ने जैन गओं को और भी बहुल-सब दान दिया था तथा नन्दिपर्वत पर आचार्य कुन्दकन्द का एक स्मारक भी बनवाया था। शिवमार के प्रान्तीय शासकी, सामन्त विहिरस एवं विजयशक्तिरस ने भी जैन मन्दिरों का निर्माण कराके उनके लिए प्रायः उसी काल में दान दिया था। सन 801 ई. में बसपट्टि के ईश्यस्-जिनालय का निर्माण हुआ और 802 ई. में राष्ट्रकूट सम्राट्र गोविन्द तृतीय ने गंगराज्य में भाग्यपुर की उपर्युक्त श्रीविजय-यदेि के लिए मन्ने दानपत्र द्वारा दान .दिया तथा उदारगण कं जैन मुरुओं का सम्मान किया था। चामराजनगर दानपत्र के अनुसार 817 ई. में राष्ट्रकट गाविन्द तृतीय के भाई कम्भ ने अपने पुत्र शंकरगण की प्रार्थना पर लालबननगर (सम्भवतया मान्यपुर इसका उपनगर था) की श्रीविजय-बसदि के लिए कुन्दकन्दाम्यय के मुनि कुमारनन्दि के प्रशिष्य और एलाचार्य के शिष्य वर्धमान-गुरु को दान दिया और 812 ई. में राष्ट्रकूट नरेश में गंगराज्य में नियुक्त अपने प्रतिनिधि शाकिराज की प्रार्थना पर शीलग्राम के जिनमन्दिरों के लिए यापनीयसंघ के मुरु अर्ककीर्ति को दान दिया था। शियमार सैगीत अपने राजनीतिक और धार्मिक कार्यकलापों के अतिरिक्त भारी विद्वान और मुणी भी था। वह पतंजलि के 'फर्णिसूतमत' प्रकरण का परिझाता और 'गजाष्टक' ग्रन्थ का कता भी था। युवराज मारसिंह की मृत्यु उसके जीवन काल में ही हो गयी थी, अतएव उसके पश्चात् शिवमार का छोटा भाई विजयादित्य सजा हुआ, किन्तु कुछ समय बाद ही उसकी मृत्यु हो गयी और विजयादित्य का पुत्र सत्यवाक्य राजा हुआ। शिवमार के छोटे पुत्र पृथ्वीपति प्रथम अपराजित ने पहले ही राज्य के एक भाग पर अपना स्वतन्त्र अधिकार कर लिया था। इस प्रकार गंगराज्य पुनः दो शाखाओं में विभक्त हो गया। उपर्युक्त पृथ्वीपलि प्रथम भी बड़ा पराक्रमी वीर था। अनेक वृद्धों में उसने भाग लिया, विजय प्राप्त की, और एक युद्ध में ही वह वीरमति को प्राप्त हुआ। उसके मुरु जैनाचार्य अरिष्टनेमि थे। उनके समाधिमणपूर्वक देहत्याग के समय पृथ्वीपति और उसकी सनी कम्पिला श्रवणबेलगोल के कटवन पर्वत पर स्वयं उपस्थित रहे थे। उसके पुत्र मासिंह ने हिन्दूपुर-दानपत्र द्वारा 853 ई. में दान दिया था। इस मारतिा का पुत्र पृथ्वीपति द्वितीय हस्तिमल्ल तथा पौत्र नन्निय गंग भी जैनधर्म के भक्त थे। नन्निय गंग के साथ यह शारखा समाप्त हो गयी।
राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (815-55)इस राजा के गद्दी पर बैठने के समय गंगराज्य की स्थिति बड़ी डांवाडोल थी। इस बुद्धिमान् एवं पराक्रमी वीर ने बापा-नरेश को पराजित करके बाणों का दमन किया। दूसरे प्रतिद्वन्द्वी नीलम्बाधिराज की बहन के साथ अपना तथा अपनी पुत्री जयब्बे के साथ उसका विवाह करके नोलम्ब-पत्खयों को अपना मित्र बना लिया। शक्तिशाली राष्ट्रकूट सम्राट् से अधिक उलझने से यह स्वयं को यथासम्भव बचाता रहा 1 स मरेश ने मंगवंश की शक्ति, समृद्धि और प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार करके उसे एक बार फिर उत्कर्ष प्रदान किया 1 राचमल्ल
92 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ