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जिसकी माता पल्लवाधिरा को प्रियपत्री थी और पिता समरकल-तिलक गरुवर्मा थे तथा जो स्वयं बाणकुल के नाशक युगद नीन्द-युवराज के पुत्र परमगूल-श्रीपृथ्वीनीगुन्दराज के साथ विवाही थी। रानी कुन्दाच्चि के श्वसुर दुष्टु-भीगुम्द-युवराज के गुरु विमलचन्द्राचार्य थे जिन्होंने इसी गंगनरेश 'शत्रुभयंकर' की राजसभा के द्वार पर परवादियों के प्रति शास्त्रार्थ का खुला आहन चलेंज) लिखकर लगाया था। सम्भवतया उन्हीं के उपदेश से उक्त मन्दिर का निर्माण कराया गया था और दान भी उन्हीं के किसी शिध्य-प्रशिष्य को दिया गया था। लगभग पचास वर्ष शासन करने के उपरान्त 777 ई. में इस सुयोग्य प्रतापी नीतिपरायण एवं धर्मात्मा नरेश श्रीपुरुष मुत्तरस ने राज्य का भार अपने पुत्र शियमार द्वि. सैगोत्त को देकर शेष जीवन जैन गुरुओं के सम्पर्क में एक उदासीन श्राधक के रूप में बिताया प्रतीत होता है। उसकी मृत्यु 788 ई. के लगभग हुई लगती है।
शिवमार द्वि. संगीत इस राजा का राज्यकाल 776-815 ई. है, किन्तु इस बीच में वह दो बार राज्यच्युत हुआ और राष्ट्रकूटों के बन्दीगृह में उसे लगभग दस-पन्द्रह वर्ष रहना पड़ा। यह गंगनरेश भारी योद्धा, वीर और पसक्रमी था। युद्धों में उसे कई बार अद्भुत सफलता भी मिली और कई बार पराजय भी। उस काल के दक्षिण भारत के राजनीतिक संघर्षों में वह आकण्ठ उलझा था। जैनधर्म का भी वह महान संरक्षक और भक्त था। स्वामी विद्यानन्द का वह बहुत सम्मान करता था। उसके संरक्षण के कारण स्वामी विद्यानन्द अपने 'श्लोकवार्तिक' और 'अष्टसहस्री जैसे विशाल ग्रन्थों का शान्तिपूर्वक प्रणयन कर सके। शिवमार का पुत्र मारसिंह और भतीजा सत्यवाक्य भी, जो उसकी अनुपस्थिति में राज्यकार्य सँभालते थे, विद्यानन्द के भक्त थे। उक्त आचार्य के विभिन्न ग्रन्थों में इन गंग-नरेशों के नाम अंकित पाये जाते हैं। शिवमार ने श्रवणबेलगोल के छोटे पर्वत पर शिक्मारन-बसदि नाम का एक सुन्दर जिनालय बनवाया था, तथा कलभाची में जिनमन्दिर बनवाकर ग्रामदान किया था। इसी कोगुणी-महाराजाधिराज-परमेश्वर श्रीशिघमारदेव के पुत्र, युवराज एवं गंगमण्डल के तत्कालीन स्थानापन्न शासक लोकत्रिनेत्र मारसिंह के मन्त्री 'समस्त सामन्त-सेनाधिपति, परम आहेत, परम धार्मिक, मन्त्र-प्रभूत्साह-शक्ति-सम्पन्न' श्रीविजय ने गंगों की राजधानी मान्यपुर में श्रीविजय नाम का अत्यन्त भव्य एवं विशाल शिनालय बनवाया था, जिसके लिए स्वयं युवराज मारसिंह ने 797 ई. में भूमि आदि का पुष्कल दान दिया था और कुन्दकुन्दाम्वय के मुनि शाल्मली ग्रामनिवासी लोरणाचार्य के प्रशिष्य तथा पुष्पनन्दी के शिष्य प्रभाचन्द्र मुनि का सम्मान किया था। उन मुनिसल ने उक्त बसदि को ही अपना आवास बना लिया था। सन् 600 ई. में युवराज पारसिंह तथा उसके चचा दुम्गमार ने अंजनेय अपरनाम कोइल बसदि नाम का सुन्दर जिनालन नारायण नामक शिल्पी से बनवाया था और मन्दिर के लिए भूमिदान किया था। इसी समय के लगभग गंजम
मंग-कदम्ब-पल्लव-चालुक्य ::