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श्रीविक्रम की दूसरी रानी (सिन्धुराज की कन्या) से उत्पन्न था, राजा हुआ 1 उसका नाम शिवमार प्रथम था।
शिवमार प्रथम-यह शिवमार-नवकाम-शिष्यप्रिय-पृथ्वीकोगुणी अपनी प्राय: वृद्धावस्था में सिंहासनासीन हुआ था । वह परम जैन था और 670 ई. में उसने कई जिनमन्दिरों का निर्माण कराया था तथा जैन गुरु चन्द्रसेनाचार्य को दान दिया था। यह आचार्य सम्भवतया पंचस्तूपान्क्य शाखा के उन चन्द्रसेन मुनि से अभिन्न हैं जो भवलाकार स्वामी नीरसेन के दादागुरु थे। इस नरेश के 700 और 713 ई. के भी अभिलेख मिले हैं- प्रथम (हरिमथ ताम्रपत्र) में उसके पूर्वजों का भी विवरण है और गंग दुर्विनीत तथा उसके गुरु देवनन्दि पूज्यपाद का भी उल्लेख है। शिवमार नवकाम के पश्चात् उसके पुत्र राचमल्ल गरेगंग ने शासन किया, तदनन्तर शियमार का पौत्र श्रीपुरुष सिंहासन पर बैठा।।
श्रीपुरुष मुत्तरस-सन्मार्मरक्षक, लोकधूर्त, शत्रुभ्यंकर, राजकेसरी, परमानन्दि, श्रीवल्लभ आदि विरुदधारी गंग नरेश श्रीपुरुष मुत्तरस पृथ्वीकोगुणी (726-76 ई.) के दीर्घकालीन शासनकाल में गंगराज्य पुनः अपनी शक्ति एवं समृद्धि की चरम सीमा को पहुँच गया। उसने अनेक सफल युद्ध भी लड़े और पल्लव नरेशों तथा बाण राजाओं को कई बार पराजित किया। राष्ट्रकूटों के प्रहारों से वह स्वयं वीरता एवं बुद्धिमत्तापूर्वक रक्षा करता रहा । पाण्ड्यनरेश राजसिंह के पुत्र के साथ अपनी पुत्री का विवाह करके उस राज्य से मैत्री सम्बन्ध बनाया, जिसके फलस्वरूप पाण्डयदेश में पिछले दशकों में जैनों पर जो भयंकर अत्याचार हो रहे थे उनका अन्त हुआ और तमिल की साहित्यिक प्रवृत्तियों में जैन विद्वानों का पुनः योग हुआ। चिकबल्लालपुर आदि कई स्थानों के भग्न जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार हुआ। गंगों के अधीनस्थ याणनरेश भी जैनधर्म के बड़े भक्त थे। सन् 750 ई. के लगभग बल्लमलई में अजनन्दि ने आचार्य भानुनन्दि के शिष्य और बागनरेश के गुरु देवसेन की मूर्ति स्थापित की थी। आचार्य प्रभाचन्द्र, विमलचन्द्र, वृद्धकुमारसेन, परवादि मल्ल, तोरणाचार्य, पुष्पसेन, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य आदि इस काल में कर्णाटक के प्रसिद्ध जैन गुरु थे। नरसिंहराजपुरा ताम्रशासन के अनुसार गंगनरेश श्रीपुरुष ने लोल्ल विषय के जिनमन्दिर को अपने पासपिड गंगवंशी सामन्त नामथर्मा की प्रेरणा से पालवल्लि ग्राम दान दिया था और 776 ई. में श्रीपुर के पार्थ जिनालय को दान दिया था-सम्भवतया इसी अवसर पर विद्यानन्दस्वामी ने उक्त जिनालय में राजा की उपस्थिति में प्रसिद्ध 'श्रीपुर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र' की रचना की थी और शायद तदनन्तर श्रीपुर को ही अपना स्थायी निवास बनाया था। इसी वर्ष इस नरेश ने श्रीपुर की उत्तरदिशा में निमापित लोकतिलक मामक जिनभवन के लिए समस्त करों और बाधाओं से मुक्त करके पोन्मलि' नामक सम्पूर्ण ग्राम तथा अन्य बहुत-सी भूमि प्रदान की धी। इस भव्य जिनालय का निर्माण कुन्दाधि नामक राजमहिला ने कराया था
90 :: प्रमुख मोतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ