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में महान जिनेन्द्र के चरण अचल-मेरु के समान स्थिर थे।' पेरूर के जिनालय, पुन्नाट देश की जैन बसदियों तथा अन्य जिनायतनों को भी उसने दान दिये थे। साथ ही उसने अपनी राज्यशक्ति और समृद्धि को भी अक्षुण्ण रखा था। उसका शासन प्रबन्ध भी उत्तम था। . . *
* दुविनीत गंग- अविनीत का पत्र एवं उत्तराधिकारी दविनीत कोंगणि (खगभग 481-522 ई.) बड़ा वीर, महत्त्वाकांक्षी, विद्वान्, साहित्यरसिक, गणिों का आदर करने थाला, प्रतापी एवं महान् नरेश था । स्वगुरु आचार्य पूज्यपाद का पदानुसरण करने में वह अपने आपको धन्य मानता था। महाकवि भारवि भी उसके दरबार में कुछ समय रहे और उसने उनके 'किरातार्जुनीय' के 15 सर्ग पर एक टीका भी लिखी थी। गुरु पूज्यपाद द्वारा रचित पाणिनीय व्याकरण की शब्दावलार टीका का कन्नड अनुवाद तथा प्राकृत वृहत्कथा का संस्कृत अनुवाद भी दुर्विनीत ने किये बताये जाते हैं। जैन धर्मावलम्बी भुजग-पुन्नाट की पौत्री एवं स्कन्द पुन्नाट की पुत्री के साथ विवाह करके उसने पुन्नाट प्रदेश दहेज में प्राप्त कर लिया था। अपने पराक्रम और जियों के द्वारा दुविनीत ने पूर्व और पश्चिम दोनों दिशाओं में राज्य विस्तार करके गंध राज्य को साम्राज्य का रूप दे दिया था। अपने समय में दक्षिण भारत का कह सर्वाधिक शक्तिशाली नरेश था। वह प्रमुशक्ति, मन्त्रशक्ति और उत्साहशक्ति तीनों शक्तियों से सम्पन्न या। वह सर्वधर्म-सहिष्णु था, तथापि पक्का जैन था। कोगलि नामक स्थान में उसने चेन्न-पाश्चनाथ-बाद का निर्माण कराया था। उसके प्रधान धर्मगुरु एवं विद्यागुरु देवनन्दि पूज्यपाद जैन परम्परा के सर्वमहान् आचार्यों एवं साहित्यकारों में से हैं। राजधानी ललकार की प्रधान जैन बसानि के वह अध्यक्ष थे,
और यह संस्थान उस काल में दक्षिण भारत में सात का प्रमुख केन्द्र, एक महान विधापीठ एवं सांस्कृतिक अधिष्ठान था, जिसमें सिद्धान्त, तक, छन्द्र, व्याकरण, आयुर्वेद, काव्य, राजनीति आदि विविध विषयों की शिक्षा की समुचित व्यवस्था थी।
दुविनीत के उपरान्त उसका प्रथम पुत्र पोलवीर, तदुपरान्त द्वितीय पुत्र मुष्कर राजा हुआ।
मुष्कर गंग-प्रो. रामास्वामी आयंगर के मतानुसार मोक्कर या मुष्कर गंग के समय में जैनधर्म गंगबाड़ी का राज्यधर्म था। इस राजा ने 550 ई. के लगभग बेलारी के निकट मुस्कर-बसदि नामक भव्य जिनालय निर्माण कराया था। उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्रीविक्रम था, जिसका उत्तराधिकारी उसका चोलरानी से उत्पन्न पुत्र भूविक्रम-मृक्लय-श्रीविक्रम था, जिसने पल्लव नरेश को पराजित करके उससे उग्रोदय मामक प्रसिद्ध रत्नजटित बहुमूल्य हार छीना था। उसके 684 ई, के बेदनूर दानपत्र से उसका जिनभक्त होना सूचित्त होता है और यह भी ज्ञात होता है कि उसका महासामन्त बाणराजा विक्रमादित्य मोविन्द-शचीन्द्र भी परम जैन था तथा अकलकदेय के सधर्मा पुष्पसेन मुनि का भक्त था। भूविक्रम के पश्चात उसका सौतेला भाई जो
गंग-कदम्ब-पल्लव-चालुका : 49