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अनुज आर्यवर्मन को पेरूर का और दूसरे भाई कृष्णवर्मन को कँवार विषय का शासक नियुक्त किया। तभी से इस पश्चिमी गंगवंश की प्रधान शाखा तलका में रही और पेरूर एवं कैवार की दो उपशाखाएं चलीं। स्वयं हरिवर्मन धनुर्विद्या के लिए प्रसिद्ध था। उसने युद्ध में हाथियों का प्रयोग किया और राज्य को समृद्ध बनाया । ॐ तदगल मा उपयुक्त हरिमन के पात्र पृथ्वीगंग का पुत्र एवं उत्तराधिकारी यह माधव तृतीय एक महान् शासक था। कदम्ब नरेश काकुत्स्थवर्मन की पुत्री के साय उसका विवाह हुआ था। यह त्र्यम्बक और जिनेन्द्र का समान रूप से भक्त था। इस राजा के कई अभिलेख 357 से 379 ई. तक के प्राप्त हुए हैं, जिनमें से 370 ई. के एक ताम्रशासन के अनुसार महाराज तदंगल माधव ने अपने राज्य के 13वें वर्ष में परब्बोलल ग्राम के अर्हतु मन्दिर के लिए दिगम्बराचार्य वीरदेव को कुमारपुर नामक ग्राम तथा अन्य बहुत-सी भूमि प्रदान की थी। वह ताम्रपत्र मतूर तालुके के नीनामंगल नामक स्थान की प्राचीन जैन बसदि (मन्दिर) के भग्नावशेषों में प्राप्त हुए हैं। उस काल में इन गंगनरेशों के प्रश्रय में अनेक जैन आचार्य एवं साहित्यकार हुए।
अविनीत मंग-तदंगल माधव का पुत्र एवं उत्तराधिकारी अविनीत कोंगुणिवर्म- धर्म - महाराजाधिराज कदम्बनरेश काकुत्स्यवर्मन का दौहित्र और शान्तिवर्मन एवं कृष्णचर्मन प्रथम का प्रिय भागिनेय था। अपने पिता की मृत्यु के समय वह माता की गोद में छोटा-सा शिशु मात्र था। शिलालेखों में उसे शतजीवी कहा गया और उसका शासनकाल बहुत दीर्घकालीन सूचित किया गया है। यह नरेश बड़ा पराक्रमी और धर्मात्मा था। कहा जाता है कि किशोर वय में ही एक बार उसने जिनेन्द्र की प्रतिमा को शिर पर धारण करके भयंकर बाद से बिफरती कावेरी नदी को अकेले पाँव पयादेपार किया था। उसके गुरु जैनाचार्य विजयकीर्ति थे, जिनकी देखरेख में उसकी शिक्षा-दीक्षा हुई थी। नोनमंगल ताम्रशासन के अनुसार सन् 430 ई. में गंगराज अविनीत ने स्वगुरु विजयकीर्ति को मूलसंघ के चन्द्रननन्दि आदि गुरुओं द्वारा स्थापित उरनूर के अर्हत्-मन्दिर एवं बिहार के लिए दान दिया था । सन् 442 ई. में (हसकोटे) ताम्र-शासन द्वारा उसने एक अन्य अर्हतायतन को दान दिया था। इस लेख में पल्लवाधिराज सिंहवर्मन की माता का भी उल्लेख है। यह सिंहवर्मन जैनाचार्य सर्वनन्दि के प्राकृत लोकविभाग (458 ई.) में उल्लिखित तन्नाम पल्लवनरेश से अभिन्न प्रतीत होता है । मर्करा ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि 466 ई. में अविनीत ने राजधानी लालवननगर की जैन बसदि के लिए दान दिया था। सुप्रसिद्ध दिगम्बराचार्य देवनन्दि पूज्यपाद (लगभग 464-524 ई.) को इस राजा ने अपने पुत्र युवराज दुर्विनीत का शिक्षक नियुक्त किया था। अभिलेखों में महाराज अविनीत गंग को विद्वज्जनों में प्रमुख, मुक्तहस्तदानी और दक्षिणापथ में जाति-व्यवस्था एवं धर्म-संस्थाओं का प्रधान संरक्षक बताया है, और लिखा है कि 'इस नरेश के हृदय
88 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ