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________________ मार्गदर्शक and a ghlapi di sin राज्योचित शिक्षा-दीक्षा दी तथा समस्त उपयोगी विधाओं में पारंगत किया, और उपयुक्त समय देखकर वन में ही कर्णिकार पुण्यों का मुकुट पहनाकर उनका राज्याभिषेक किया, अपनी मयूरपिच्छिका उन्हें राजध्वज के रूप में प्रदान की और मत्तगयन्द उनका राज्यचि निश्चित किया। उस समय आचार्य ने इस प्रथम मंग-नरेशद्वय को यह चेतावनी दी कि...यदि तुम लोग (या तुम्हारे वंशज) कभी अपमा वचन भंग करोगे, कभी जिनशासन से विमुख होगे, परस्त्री के ऊपर कुदृष्टि डालोगे, -मांस का सेवन करोगे, नीच व्यक्तियों की संगति करोगे, याचक जनों को दान देने से मुँह मोड़ोगे और रणभूमि से पीठ दिखाकर भागोगे तो तुम्हारे कुल का नाश हो जाएगा। दद्दिग और माधव भ्रातृद्वय ने गुरु वचनों को शिरोधार्य किया और गुरु के उपदेशानुसार अद्भुत उत्साह के साथ राज्य निर्माण के कार्य में जुट गये। गंगराज्य-संस्थापक सिंह नन्द्याचार्य द्वारा दहिग और माधव को अभिषिक्त करके उक्त राज्य एवं राज्यवंश की नींव डालने की घटना की तिथि 188 ई. मान्यता की जाती है, यद्यपि कई आधुनिक विद्वान् उसे तीसरी शताब्दी में रखते हैं। आचार्य सिंहनदि सम्भवतया जिनधर्म के परम प्रभावक आचार्य समन्तभद्रस्वामी के सुशिष्य थे। एक शिलालेख में सिंहनन्दि को 'दक्षिण- देशवासी मंगमहीमण्डलीक - कुलसमुद्धरणः श्रीमूल संघनाथ' कहा गया है। इनके शिष्य उपर्युक्त गंगराजकुमारों ने बाणमण्डल के एक बड़े भाग को अपने पराक्रम से विजय करके राज्य की नींव डाल दी। एक अनुश्रुति के अनुसार उन्होंने नन्दगिरि को अपना दुर्ग बनाया, कुबलाल (कौलार) को राजधानी बनाया, गंगवाड़ - 96,000 संजक उनका देश हुआ, रणभूमि में विजय को उन्होंने अपनी थिरसंगिनी बनायी तथा जिनेन्द्र भगवान् को अपना इष्टदेव, जिनमत को अपना धर्म और आचार्य सिंहनन्दि को अपना गुरु बनाकर उन्होंने इस पृथ्वी का उत्तर में माण्डले पर्यन्त, पूर्व में तोण्डेयमण्डलम् तक दक्षिण में कोंगु देश तक और पश्चिम में चेर राज्य की दिशा में महासागर पर्यन्त भोग किया। बड़े भाई दद्दिग की मृत्यु तो राज्य निर्माण के प्रयत्न के मध्य ही हो गयी थी, अतएव इस वंश का वास्तविक प्रथम नरेश छोटा भाई माधव कोंगुणिव प्रथम था, जिसने लगभग पचास वर्ष राज्य किया। बाणों के साथ उसके प्रायः निरन्तर युद्ध चलते रहे - शिलालेखों मैं उसे बाणरूपी वन के लिए दावाग्नि कहा गया है। पराक्रमी होने के साथ ही साथ वह बड़ा धर्मात्मा था। मण्डल नामक स्थान में उसने काष्ठ का एक भव्य जिनालय बनवाया और एक जैन पीठ भी स्थापित किया जो शिक्षा और संस्कृति का केन्द्र और निर्ग्रन्थ गुरुओं का आवास स्थान था । उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी किरियमाधव द्वितीय था जो नीतिशास्त्र में निष्णात और दत्तकसूत्रों का टीकाकार था। उसने अपने पिता का पदानुसरण किया। इसका ज्येष्ठ पुत्र हरिवर्मन पिता के राज्य का अधिकारी हुआ। उसने कुवलाल का परित्याग करके तलकाड (तालवनपुर या तालवननगर) को अपनी राजधानी बनाया, गंग-कदम्ब-पल्लव- चालुक्य : 87
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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