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________________ का दान, रुसनन्दि के पुत्र तेवणिक (tain) नन्दिघोष द्वारा आयागफ्ट की स्थापना, बज्रनन्दि की पुत्री और वृद्धिशिवि की पतोहू दत्ता बड़माशि द्वारा वर्धमान प्रतिभा का दान, मोगलीपुत्र पुष्पक की भार्या अश्या द्वारा प्रासाद (जिनम) शारकी काकीत शिरिक और शिवदिन्ना की बहन श्राविका ओखा द्वारा जिनमन्दिर निर्माण कराके उसमें भगवान् महावीर की प्रतिमा प्रतिष्ठित करना ( यह परिवार विदेशी - शक या पह्नव रहा प्रतीत होता है ), इत्यादि शिलालेख हैं । इन लेखों से उस काल के मथुरा एवं उसके आस-पास के निवासी धर्मप्राण आवक-श्राविकाओं में अनेक का परिचय प्राप्त होता हैं। अधिकांश नाम सार्थक हैं तथा उक्त व्यक्तियों के प्रतिष्ठित एवं सम्भ्रान्त होने के सूचक हैं। उनके विरुद, विशेषण आदि भी इस तथ्य के समर्थक हैं। सुदूर दक्षिण के जैन तमिल ( द्रविड़ ) प्रदेश के प्रमुख राज्य चोल, पाण्ड्य, धेर, केरल और सत्यपुत्र थे। आचार्य भद्रबाहु श्रुतकेवली के विशाखाचार्य आदि शिष्य-प्रशिष्यों ने कर्णाटक एवं तमिल प्रदेशों में पूर्वकाल से ही वहाँ प्रचलित रहे आये जैन धर्म में नवीन प्राण-संचार किया था। तमिल भाषा के प्राचीन संगम साहित्य से भी प्रकट है कि ईसवी सन् के प्रारम्भ के आस-पास जैनधर्म और संस्कृति वहाँ व्यापक एवं उन्नत स्थिति में थे। उसी काल में मूलसंघाग्रणी सुप्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्द हुए जिनका एक नाम एलाचार्य भी था । यह स्वयं उसी प्रदेश के निवासी थे और एक सम्भ्रान्त कुल में उत्पन्न हुए थे। उनके गृहस्थ शिष्य तिरुवल्लुवर ने उन्हीं की प्रेरणा से तमिल भाषा के विश्वविख्यात नीतिशास्त्र' 'कुरलकाव्य' की रचना की थी। प्रायः उसी काल में मदुरा के पाण्ड्य नरेश ने एक जैन श्रमणाचार्य को सांस्कृतिक दूत के रूप में रोम के सम्राट् आगस्टस के दरबार में भेजा था। प्रारम्भिक संगम साहित्य का प्रणयन भी मुख्यतया मथुरा नगर में ही हुआ और उसमें जैन विद्वानों का प्रमुख योग था । प्रथम शती ईसवी के उत्तरार्ध में आचार्य आदुबलि दक्षिण भारतीय जैनों के संचाचार्य थे और उन्होंने महिमानगरी में एक महामुनिसम्मेलन किया था जिसमें मूलसंघ नन्दि, सेन, देव सिंह, भद्र आदि गण-गच्छों में विभक्त हुआ। दूसरी शती ई. के पूर्वार्ध में future की राजधानी परेयूर (उरगपुर वर्तमान तिरुचिरापल्ली ) का नागनरेश कीलिकवर्मन चील एक शक्तिशाली राजा था और जैनधर्म का अनुयायी था। उसके कनिष्ठ पुत्र राजकुमार शान्तिवर्मन ही मुनि दीक्षा लेकर आयार्य समन्तभद्र स्वामी के नाम से विख्यात हुए। उन्होंने पूरे भारतवर्ष का भ्रमण करके जिनधर्म की विजय- दुन्दुभि बजायी थी । उनके अनन्य भक्त करहाटक ( करहद) के प्रारम्भिक कदम्ब नरेश शिवकोटि और उसका अनुज शिवायन थे। शिवकोटि का पुत्र एवं उत्तराधिकारी श्री भी जैन था। उसी काल में चेर राज्य का स्वामी मुल्यवन 84 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं .
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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