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प्रति सहिष्णु था और सभी का समान भाव से आदर करता था। कम से कम मथुरा के जैनों को उस प्रहुआ का लेख में सम्राट् कनिष्क का नाम अंकित है । थामस आदि कई विद्वानों के मतानुसार तो कम से कम अपने राज्यकाल के पूर्वभाग में जैनधर्म की ओर उसका विशेष झुकाव रहा प्रतीत होता है। कहा जाता है कि एक प्राचीन जैन स्तूप का भी उसने जीर्णोद्धार कराया था। पश्चिमोत्तर सीमान्त में सिरकप के प्राचीन स्तूप को भी अनेक पुरातत्वज्ञों ने मूलतः जैन घोषित किया है, और वह स्तूप सम्भवतया इसी नरेश द्वारा बनवाया गया था। कनिष्क के पश्चात् हुविष्क, कनिष्क द्वितीय, वशिष्क, वासुदेव प्रथम, वासुदेव द्वितीय आदि कई राजे इस वंश में क्रमशः हुए। इनमें पिछले कई तो स्थायी रूप से मथुरा में ही रहने लगे थे। तीसरी शती ई. के प्रारम्भ के लगभग इन कुषाण नरेशों की सत्ता अस्तप्राय हो गयी थीं। कनिष्क की भाँति उसके वंशज भी जैनधर्म के प्रति पर्याप्त सहिष्णु रहे। उनके शासनकाल में तो मथुरा का जैनधर्म पर्याप्त उन्नत एवं प्राणवान् धा, जैसा कि उस काल के लगभग एक सौ जैन शिलालेखों से प्रकट है। इन शिलालेखों से राजनीतिक और आर्थिक ही नहीं, वरन् भारतवर्ष के तत्कालीन एवं तत्प्रदेशीय सांस्कृतिक इतिहास की अप्रतिम सामग्री प्रभूत मात्रा में प्राप्त होती है। कुषाणकाल के मथुरा और उसके आस-पास से प्राप्त उक्त शिलालेखों में से चौबीस में तत्कालीन नरेशों के नाम, लगभग एक सौ में धर्मभक्त श्रावकों तथा साठ-सत्तर में धर्मप्राण महिलाओं के नाम प्राप्त होते हैं। साधु-साध्वियों के अतिरिक्त इन विविध प्रकार के धर्मकार्य, निर्माण और दान-पूजादि करनेवाले धर्मात्मा स्त्री-पुरुषों में विभिन्न जातियों, वर्गों एवं व्यवसायों से सम्बन्धित व्यक्तियों के नाम हैं, जिनमें कई एक चवन, शक पह्नव आदि विदेशी भी हैं। उपर्युक्त शिलालेखों में से चार में महाराज राजातिराज देवपुत्र - शाहि कनिष्क का चीदह में देवपुत्र - महाराज हुविष्क का और छह में महाराज वासुदेव का नाम अंकित है। उल्लेखनीय अभिलेखों में श्रेष्ठिसेन की सहचारि ( भार्या) और देवपाल की पुत्री क्षुद्रा द्वारा वर्धमान प्रतिमा के दान का वरणहस्ति एवं देवी की पुत्री, जयदेव और मोषिनी की पुत्रवधू तथा कुट-कतुथ को धर्मपत्नी स्थिरा द्वारा 'सर्वसत्त्वानं हित सुखाय' एक सर्वतोभद्र प्रतिमा के दान का धर्म की पुत्री और जयदास की पत्नी गुल्हा द्वारा ऋषभदेव की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराने का वैणि श्रेष्ठि की धर्मपत्नी और भट्टिसेन को माता कुमारमित्रा द्वारा सर्वतोभद्र प्रतिमा के दान का, जय की माता मासिगि द्वारा भी वैसी ही एक प्रतिमा के दान का सेठानी मित्रश्री द्वारा अरिष्टनेमि की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराने का शुचिल सेठ की भार्या द्वारा शान्तिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराने का काष्ठबाकू (टिम्बरमर्चेण्ट ) दतिल की पुत्रवधू, मतिल की पत्नी और जयपाल, देवदास, नागदत्त और नागदत्ता की माता श्राविकादीना द्वारा वर्धमान प्रतिमा के समर्पण का खो मित्र मानिकर (जौहरी) के पुत्र जयभट्टि की पुत्री, लोहवणिक
82 प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ