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________________ तथा अन्य सर्व परिजनों के साथ सेठों की निगम के अर्हतायतन (जिनमन्दिर में आईत भगवान की पूजा के लिए एक वेदीगृह, पूजा-मण्डप, प्रपा (जलाशय), शिला आदि निर्माण कराकर समर्पित किये थे । एक शिलालेख के अनुसार उस वीर गौतीपत्र की भार्या कौशिकी शिवमित्रा ने एक आयागपट प्रतिष्ठिापित किया था, जो स्वयं पोठय (पदव या पार्थियन) और शक लोगों के लिए काल व्याल (काला नाग अर्थात् उनका साक्षात् काल) था। सम्भयतया इसी गौती (गौप्ती) पुत्र इन्द्रपाल ने अर्हन्त-पूजा के अर्थ एक जिन-प्रतिमा प्रतिष्ठापित की धी। ये दोनों शिलालेख ईसवी सन की प्रथम शती के दूसरे दशक के अनुमान किये जाते हैं। ऐसा लयता है कि इस पराक्रमी धीर भाप्तीपुत्र को ही मथुरा में शक-शत्रपों की सत्ता को समाप्त करने का श्रेय है, सम्भवतया पुराने या एक नवीन स्थानीय राज्यवंश की स्थापना का भी1 प्रायः उसी काल में भूने जयसेन की शिष्या धर्मघोषाने एक जिनमन्दिर बनवास, अप-श्राविका बलहरितनी ने अपने माता, पिता, सास और श्वसुर सहित एक प्रासाद-तोश्ण प्रतिष्ठापित किया, फाल्गुयश नर्तक की मायां शिवयशा ने अर्हत-पूजार्थ एक आवागपट समर्पित किया, मथुरावासी लबाड नामक एक विदेशी की भाया ने भी एक आयागपट दान दिया, इत्यादि। ये शिलालेख स्वयं मुखर हैं और इसवी सन के प्रारम्भ से पूर्व की तथा पश्चात की दोनों शताब्दियों में मथस क्षेत्र के कतिपय प्रतिष्ठित जैन पुरुषों एवं महिलाओं का सांकेतिक परिचय हमें प्रदान करते हैं। मथुरा से प्राप्त शत्रपकालीन शिलालेखों में जैन शिलालेखों की संख्या अभ्य सबसे अधिक कुषाण नरेश ईसवी सन् की प्रथम शती के मध्य के लगभग कुषाणों ने उत्तर-पश्चिम भीमान्त के दरों ले भारत में प्रवेश करके काबुल, कन्दहार और पश्चिमी सिन्ध पर अधिकार कर लिया। आगामी पचीस वर्ष बीतते न बीतते समस्त पंजाब, कश्मीर और मध्यदेश में मथुरा से आगे तक उनकी सत्ता स्थापित हो गयी। इस वंश का सर्वमहान् नरेश कनिष्क प्रथम था जिसका राज्यारोहण संयोग से 78 ई. में हुआ। उसी वर्ष से उसने अपने राज्यकाल की गणना प्रारम्भ की, अतएव कालान्तर में शकराज भद्रचष्टन द्वारा स्थापित संवत् का प्रवर्तक बहुधा कुषाण सम्राट् कनिष्क को ही माना जाने लगा। कनिष्क ने अपने राज्य का विस्तार पश्चिम में मध्य एशिया के भीतर तक, उत्तर में तिब्बत तथा चीन के भी कुछ भागों तक और पूर्व में बिहार पर्यन्त विस्तृत कर लिया था। उसकी प्रधान राजधानी पुरुषपुर (पेशाबर) थी और उपराजधानी मथुरा धी। वहाँ उसकी स्वयं की एक देहाकार मूर्ति भी मिली है। बौद्ध अनुति उसे अशोक के समान ही बौद्धधर्म का भक्त एवं प्रश्रयदाता बताती है। परन्तु विद्वानों का मत है कि उसके साम्राज्य में जितने धर्म प्रचलित थे वह उन सबके खारवेल-विक्रम युग ::
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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