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________________ भगवान महावीर की जन्मभूमि वैशाली को तीर्थयात्रा की थी। उस महिला की कतिपय मुद्राएँ बसाइ (वैशाली) के खंडहरों में प्राप्त हुई हैं। मथुरा के शक क्षत्रप __ मौर्य सम्प्रति के समय में रानी सर्बिला के प्रयास से प्राचीन जैन स्तूप पर जैनों का पुनः अधिकार स्थापित हो जाने के उपरान्त पश्चिमी उत्तरप्रदेश में मथुरा नगर जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र बनता गया। यहाँ के तथाकथित मित्रवंशी राजे जी सम्पयतया रानी सचिला की ही सन्तति में से थे या तो जैन थे अथवा जैनधर्म के प्रति पर्याप्त सहिष्णु थे। उक्त प्राचीन देवनिर्मित स्तूप (जिसके अवशेष मथुरा के कंकाली टीले से विपुल पात्रा में प्राप्त हुए हैं) के चारों ओर एक विशाल जैन संस्थान विकसित हुआ जहाँ अनेक जैन साधु निवास करते थे। मथुरा के ये जैन मुनि सम्राट खारवेल द्वारा आयोजित मुनि सम्मेलन में भी सम्मिलित हुए थे। इनकी एक विशेषता यह थी कि उन्होंने एक दूसरे से फटकर दूर होती हुई दक्षिणी-पश्चिमी शाखाओं से, जो कालान्तर में क्रमश: दिगम्बर और श्वेताम्बर नामों से प्रसिद्ध हुईं, स्वयं को पृथक् रखा तथा उन दोनों के समन्वय का ही प्रयत्न किया। मथुरा के इन मुनियों ने ही वह सरस्वती-आन्दोलन चलाया जिसके फलस्वरूप जैनसंघ में श्रुतागम के लिपिबद्ध करने एवं पुस्तक साहित्य प्रणयन की प्रवृत्ति शुरू हुई। वैसे भी महानगरी मथ्य विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों तथा देशी-विदेशी जातियों का सखद संगमस्थल थी। स्वभावतः वहाँ के जैन साधु और गृहस्थ अपेक्षाकृत कहीं अधिक उदार और विशाल दृष्टियाले थे। अस्तु, प्रायः उसी काल में जब शकों का मालवा में सर्वप्रथम प्रवेश हुआ (लगभग ई. पू. 66 में) तो मथुरा पर भी उनकी एक शाखा ने अधिकार कर लिया था। मथुरा के इस शक क्षत्रप बंश में हगन, रम्जुबल, मोडास आदि नाम प्राप्त होते हैं। मथुरा की अपनी परम्परा के अनुसार उसके इन शक-क्षत्रपों ने भी सर्वधर्म सहिष्णुता की नीति अपनायी। इनमें महाक्षत्रप शोडास सर्वाधिक प्रसिद्ध है और उसका झुकाव भी जैनधर्म की ओर विशेष रहा प्रतीत होता है। इसी काल में मथस में प्रसिद्ध जैन सिंहध्यन स्थापित हा तथा श्रम महारक्षित के शिष्य और वात्सी के पुत्र श्रावक उत्तरदासक ने जिनेन्द्र के प्रासाद का तोरण निर्माण कराया था। स्वामी महाक्षत्रप सोझास के 42 वर्ष के एक शिलालेख में अर्हत-वधमान को नमस्कार करने के पश्चात्त बताया है कि हारीलिपुत्र पाल की भार्या श्रमण-श्राविका कौत्सी आमोहिनी ने पालघोष, प्रोस्थाघोष एवं घनघोष नामक अपने पुत्रों सहित आर्यवती (भगवान की माता) की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की थी। एक अन्य उसी कारव. के अभिलेख में अर्हतु-बर्धमान को नमस्कार करके बताया है कि लवणशोभिका नाम की एक श्रमण-श्राविका ने, जो एक गणिका थी, अपनी माता, बहनों, पुत्रियों, पुत्रों 80 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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