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________________ सेठ सुबुद्धि के दीक्षा गुरू थे। उक्त आचार्य ने सन् 66 ई. के लगभग वेण्यातटवर्ती महिमानगरी में महामुनि सम्मेलन किया था। उसी सम्मेलन ने सौराष्ट्र के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में निवास करनेवाले आगमधर आचार्य धरसेन का सन्देश वाकर, सर्वसम्मति से सुबुद्धि एवं नरवाहन मुनित्य को सर्यथा योग्य समझकर धरसेनाचार्य की सेवा में भेजा था। धरसेनाचार्य ने इन्हें क्रमशः पुष्पदन्त और भूतबलि नाम दिये, स्वयं को परम्परा से प्राप्त मूल आगमज्ञान दिया और उसे पुस्तकीकरण करने का आदेश दिया । परिणामस्वरूप प्राप्पदन्नः एन शान्ति झावार्थदर के अध्यवसाय से षटूखण्डागम सिद्धान्त के रूप में तीर्थकर पहावीर की झादशांगवाणी के उक्त महत्त्वपूर्ण अंश का उद्धार हुआ, वह लिपिबद्ध हुआ और पुस्तक रूप में उसके पूजन-प्रकाशन की स्मृति में श्रुतपंचमी की प्रवृत्ति हुई। MEMES मद्रचष्टनवंशी क्षत्रप नहपान के राज्य त्याग करने के पश्चात कुछ ही वर्षों में उसके सेनापति यशोमतिक का बल और प्रभाव इतना बड़ा कि वह महरात राज्य की प्रधान शक्ति बन गया । उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी चष्टन और भी अधिक महत्त्वाकांक्षी वीर एवं युद्धकुशल था। सन् 78 ई. में उसने मालवमाण को पराजित करके उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया और इस उपलक्ष्य में अपना नवीन शक संवत प्रचलित किया। उसने अपनी स्वतन्त्रता भी घोषित कर दी और सौराष्ट्र में नयीन सन्धर्वश की स्थापना की जो पश्चिमी क्षत्रपवंश कहलाया। जैन अनुश्रुति के अनुसार महावीर निर्माण से 105 वर्ष पाँच मास पात् इस वंश का संस्थापक शक नरेन्द्र भद्रपष्टन ही प्रचलित शक संवत् का प्रक्लंक हैं। यह भारतवर्ष का प्रथम चैत्रादि संवत् था और दक्षिण एवं पश्चिम भारत में सामान्यतया तथा जैनों में विशेषतया लोकप्रिय हुआ । सातवाहन राजाओं ने भी इस नवीन संयत को अपनाने का प्रयत्म किया, इसीलिए कालान्तर में वह शक-शालिवाहन संवतू के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। भद्रचष्टन का वंश लगभग ढाई सौ वर्ष तक चला और उसमें कई महत्वपूर्ण नरेश हुए । चटम का पौत्र महाक्षत्रप रुद्रदामन प्रथम (लगभग 17-150 ई.) इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली एवं प्रतापी मरेश था उसका सन् 150 ई. का बृहत् शिलालेख ओ इतिहास में जूनागढ़-प्रशस्ति के नाम से प्रसिद्ध है, गिरिनगर के सुप्रसिद्ध मौर्यकालीन सुदर्शनताल के तट पर अंकित है। उस सरोवर का जीणोद्धार भी इस नरेश ने कराया था। रुद्रदामन के पुत्र एवं उत्तराधिकारी दामजदश्री ने गिरिनगर की पूर्योक्त चन्द्रगुफा में आगमोद्धारक आचार्य धरसेन के स्वर्गवास की स्मृति में एक शिलालेख कित कराया था। इसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी रुद्रसिंह प्रथम भी जैनधर्म का अनुयायी था। प्रायः इली काल में इस यश की एक राजमहिला ने खारयेन-विक्रम युग :: 79
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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