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ये लोग स्वदेश का परित्याग करके दक्षिण-पूर्व की ओर चले गये और ग़जस्थान के वैगनादेश में जा बसे । किन्तु वहीं भी न जम पाय और सम्भवतथा अशोक या सम्पति के समय में अनन्ति प्रदेश में आ बसे। उन्हीं के कारण यह प्रदेश कालान्तर में पालया कहलाने लगा । सम्पति के निर्वान राधिकारियों के समय में उन्होंने अपनी संख्या, गप्पस स्थान और म
या RTचय का लो, और सम्भवतया शुंग राज्यक्रान्ति का लाभ उठाकर तथा जन्मिनी को अपना केन्द्र बनाकर अपनी गगसत्ता स्वतन्त्र स्थापित कर ली। शायद यही कारण है कि शंगों में जब इस प्रदेश पर अधिकार किया लो अपनी राजधानी जयिनी को न बनाकर विदिशा को बनाया। सा प्रतीत होता है कि कलिंग-चक्रवाती खारबंग ने मध्यभारत के अपने अभियान में उक्त मालवगण को भी विजा क लिया था और सम्भवतया इसकी गणतन्त्रात्मक सना की भी मान्य कर लिया था, किन्न गणाध्यक्ष के पद पर स्वयं अपना पक राजकुमार नियुक्त कर दिया था। इस राजकुमार का वंशज, सम्भवतथा पौध, महेन्द्रादित्य गर्दभिल ई. पू. 74 में मालवगणा का अध्यक्ष और उज्जविनी का स्वामी या । यह नगर पूर्वकाल से ही जैनधर्म से सम्बन्धित रहता आया था और उस काल में लो मध्यमारत में विशेषकर आचार्य स्थूलिभद्र एवं सुहान की परम्परा के जैनों का प्रधान केन्द्र था। जैन साधाओं और साध्वियों का वहां स्वच्छन्द विहार होता था। बालक द्वितीय उस समय के प्रसिद्ध जैनाचार्य थे जो पूर्वावस्था में एक राजकुमार थे। उनकी बहन सरस्वती भी जैन साध्वी थी। वह अनिन्ध सुन्दरी थी। गर्दपिताल उसे देखते ही उसके रूप पर बेतरह आसक्त हो गया और उसने धर्म की मर्यादा को भुलाकर उक्स साथ्यी को जबरदस्ती अपहरण कराक अपने महान में उटया मैंगाया। समाचार पाते ही कालक ने राजा के पास जाकर उसे चत समझाया तथा अनेक प्रतिष्टित व्यक्तियों से भी ज़ोर इलवाया, किन्तु उस स्वेच्छाचारी सत्ताधारी को उसके दुष्ट अभिप्राय से विरत करने में सफल न हो सका। गर्दभिल्ल के भय से आसपास के अन्य राजे मी हस्तक्षेप करने का साहस न कर सके। कालक के राज्यकलोहान्न क्षात्रयोचित संस्कार जाग्रत हो चूकं थे, अतएव सन्त्रस्त कालक सिन्धुकूल पर अबस्थित शकस्थान के शाहियों के पास पहुंचा और उन्हें ससैन्य साथ लेकर तथा मार्ग के अन्य राजाओं की भी सहायता प्राप्त करता हुआ ई. पू. 155 में उजयिनी के दुर्ग-वार पर आ धमका। चार वर्ष तक निरन्तर बुद्ध चला । अन्नतः ई. प. में कालक के कौशल और शक शाहियों के पराक्रम से ममिल पसजिन होकर बन्दी हुआ और सरस्वती का तथा मालवगण कामत अत्याचारी के कुशासन से उद्धार हुआ। उसकी याचना पर कानक ने उसे प्राणदान देकर अंश से निर्धासित कर लिया। किन्तु अब शाही जमिनी में जम गये । अपनी विजय के उपलक्ष्य में उन्हनि एक शक संवत भी प्रचलित कर दिया, मां पूर्व शक्क
रवार वन-विक्रम युग :: .