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________________ Marw w wwww00000000-000nmalini संवत् भी कहलाता है। यह संवत् उस देश एवं काल में प्रचलित महानोर संवत् की भाँति कालिकादि था। सम्भवतया पुराने संवत् में ही नयी कालगणना शुरू कर दी गयी थी। शकों का यहाँ जम बैठना स्वाधीनता-प्रेमी मालवगण सहन नहीं कर सके। स्वयं कालक की यह स्थिति अभिप्रेत नहीं थी। महेन्द्रादित्य गर्दभिल्ल का सुयोग्य एवं तेजस्वी पुत्र वीर विक्रमादित्य तो इस स्थिति से अत्यन्त असन्तुष्ट था। फलतः उसने मालवजनों को अपने नेतृत्व में सुसंगठित किया और ई. पू. 57 में शकों को उज्जयिनी प्रदेश से निकाल बाहर किया। मालवगण ने अपनी यह विजय बड़े उल्लास और समारोह से मनायो । वीर विक्रमादित्य को उन्होंने अपना गणरामा घोषित किया। उसे 'शकारि' की उपाधि प्रदान की, और ज्वत विजय वर्ष से एक संवत् का प्रवर्तन विजो कई प्राब्दिात मागण. मालववंशकीर्ति, मालवेश अथवा मालव संवत् कहलाया 1 क्योंकि यह भी प्रचलित महावीर संवत् की भाँति कार्तिकादि ही था और विक्रम के सुराज्य की दृष्टि से सतयुग के प्रारम्भ का सूचक भी था जो कृत संवतू भी कहलाया। कालान्तर में 78 ई. के शक-शालिवाहन संवत् के अनुकरण पर उसे चैत्रादि बना दिया गया और शनैः-शनैः वह विक्रमाय काल, विक्रमनृपकाल या विक्रम संवत्त भी कहलाने लगा। मालघगण ने अपनी उक्त विजय के उपलक्ष्य में सिक्के भी डाले, जिनपर मालवानां जयः' और 'पालवगणस्य जयः' शब्द अंकित किये। यह तो उस परमवीर एवं देशभक्त विक्रमादित्य की अतिशय उदारता एवं अहंशून्यत्ता का ही परिचायक है कि उत्तने न उक्त सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया और न उस संवत् के साथ ही जोड़ा, किन्तु देश की जनता, आनेवाली पीढ़ियों और इतिहास ने उसे अपर करके समुचित कृतज्ञता ज्ञापन किया ही। कालान्तर में अनेक भारतीय नरेशों ने 'विक्रमादित्य' विरुद धारण किया, अपने नाम से संवत् भी चलाये, किन्तु उक्त नाम का धारक प्रथम नरेश यही था। ऐतिहासिक राजकीय भारतीय संवत् का सर्वप्रथम प्रवर्तक भी यही था। अनगिनत भारतीय लोककथाओं का वह नायक है। एक अत्यन्त बुद्धिमान, पराक्रमी, अतिशय उदार एवं दानशील, सर्वधर्मसहिष्णु, विधारसिक, विद्वानों का प्रश्रयदाता, अत्यन्त न्यायपरायण, धर्मात्मा, प्रजावत्सल एवं सुशासक के रूप में यह आदर्श भारतीय नरेश भाना जाता रहा है। पूर्ववर्ती चन्द्रगुप्त मौर्य एवं खारवेल-जैसे महान् जैन सम्राटों की परम्परा में देश को विदेशियों के आक्रमण से मुक्त करने में यह महान जैन सम्राट विक्रमादित्य भी अविस्मरणीय है। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार वह जैनधर्म का परम भक्त था 1 इस विषय में शंका करने की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण, बौद्धादि अन्य सम्प्रदायों की अनुश्रुतियों में तथा उनके आधार से लिखे गये सामान्य इतिहास में उसका कहीं 76 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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