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उसने लेणे (फाग) बनवापी, स्वयं उपासक (श्रावक) के व्रत ग्रहण किये और अर्हन्मन्दिर के निकट उसने एक विशाल मनोरम सभामण्डप (अर्कासन-गुम्फा) बनाया, जिसके मध्य में एक बहुमूल्य रल जाटत मानस्तम्भ स्थापित कराया। उस सभामण्डप में सम्राट ने उन समस्त सुकृत सुविहित ज्ञानी तपस्वी श्रमणों (जैन मुनियों) का सम्मेलन किया जो चारों दिशाओं से दूर-दूर से उसमें सम्मिलित होने के लिए पधारे थे। इस महामुनि-सम्मेलन में इस राजर्षि ने भगवान की दिव्यध्यान में उच्चरित उस शान्तिदायी द्वादशांग-श्रुत का पाठ कराया, जो कि महावीर संवत् 165 (ई. पू. 362 भद्रबाहु श्रुतकेवली के निधनकाल) से निरन्तर झास को प्राप्त होता आरह यासियों उस द्वार का प्रवन का और इस प्रकार उस क्षेमराज के पौत्र) घुद्धिराज (के पुत्र) भिक्षुराज (राजर्षि) धर्मराज नृपति ने भगवान् की उक्त कल्याणकारी वाणी के सम्बन्ध में प्रश्नचर्चा करते हुए, उसका श्रवण और चिन्तवन करते हुए समय बिताया। विशिष्ट गुणों के कारण दक्ष, समस्त धमों का आदर करने धाला, अप्रतिहत चक्रवाहन (जिसके रथ, ध्वजा और सेना की गति को कोई न रोक संका), साम्राज्यों का सतत विजयी एवं विशाल साम्राज्य का संचालक और संरक्षक, राजर्षियों के वंश में उत्पन्न, महाविजयी राजचक्री, ऐला यह राजा खारवेलची था।"
इस राजकीय अभिलेख का महत्त्व सुस्पष्ट है। समय की दृष्टि से सम्राट प्रियदशी (अशोक वा सम्प्रति) के शिलालेखों के पश्चात् इसी का नम्बर आता है। ऐतिहासिक दृष्टि से तो यह अभिलेख प्राचीन भारत के समस्त उपलब्ध शिलालेखों मैं सोपरि है। उस काल का यही एकमात्र ऐसा लेख है जिसमें नायक के वंश, वर्षसंख्या, देश (कलिंग) की जनसंख्या, देश ज्ञाति, पद-नाम इत्यादि अनेक बहुमूल्य ऐतिहासिक तथ्यों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। प्रो. सखालदास बनर्जी के मतानुसार यह लेख पौराणिक वंशावलियों की पुष्टि करता है और ऐतिहासक कालगणना को पाँचौं शती ई. पू. के मध्य के खगभग तक पहुँचा देता है। देश के लिए भारतवर्ष नाम का सर्वप्रथम शिलालेखीय प्रयोग इसी लेख में प्राप्त होता है। कलिंग देश की तत्कालीन राजनीति, लोकदशा, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन, राजा की योग्यता, राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा और प्रजा के प्रति राजा के कर्तव्यों का यह लेख सुन्दर दिग्दर्शन कराता है। बिहार और उड़ीसा प्रान्तों के सम्बन्धों की ऐतिहासिकता को भी साधिक दो सहस्त्र वर्ष पूर्व तक ले जाता है।
इस विषय में तो किसी को भी कोई सन्देह नहीं हैं कि इस लेख को अंकित करानेवाला नरेश जैनधर्म का अनुयायी और परम जिनभक्त था, अतएव जैनधर्म के इतिहास के लिए तो यह शिलालेख अत्यन्त मूल्यवान है। कई जैन अनुश्रुतियों की पुष्टि भी इस लेख से होती है। भद्रबाहु श्रुतकेयली के उपरान्त मौखिक द्वार से प्रवाहित चले आये आगमश्रुत का क्रमिक ह्रास, खारवेल द्वारा उसके उद्धार का
रवारवेल-विकप युग :: 74