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________________ Kammar गोरथगिर गया जिले की बराबर पहाड़ी पर भीषण युद्ध करके राजगृह-नरेश को त्रस्त कर दिया। सम्राट् खारवेल के भय से यवनराज दिमित्र (मध्य एशिया का यूनानी नरेश डेमेट्रियस जिसने उस समय भारत पर आक्रमण किया था ) अपनी समस्त सेना, युद्ध सामग्री, नाहनों आदि को जहाँ-तहाँ छोड़कर मथुरा से अपने देश को भाग मया। यमुनातट पर (मथुरा में) पहुँचकर पुष्पित-पल्लवित कल्पवृक्ष तुल्य वह राजाधिराज खारवेल अपने समस्त अधीनस्थ राजाओं तथा अश्व-गज-रथ-सैन्य सहित, सब गृहस्यों द्वारा पूजित (उस नगर के प्रसिद्ध देव-निर्मित) स्तूप की पूजा करने गया। उसने सभी याचकों को यान दिया, ब्राह्मणों को भरपेट भोजन कराया और अरहन्तों की पूजा की। नौवें वर्ष में उसने (कलिंग को) प्राचीन नदी (महानदी) के दोनों किनारों पर अड़तीस लाख मुद्रा व्यय करके महा-विजय-प्रासाद नाम का अतितुन्दर एवं विशाल सजमहल बनवाबा। दसवें वर्ष में उसने अपनी सेनाओं को विजययात्रा के लिए पुनः भारतवर्ष (उत्तरापथ) की ओर भेजा और परिणामस्वरूप उसके सब मनोरथ सफल हुए 1 ग्यारहवें वर्ष में उसने दक्षिणदेश की विजय की। विथुण्डनगर (वृथुदकपुरी) का ध्वंस किया। उसमें गदहों के हल चलवा दिये और 113 वर्ष से संगठित चले आये तमिल राज्यों के संघ को छिन्न-भिन्न कर दिया। बारहवें वर्ष में सम्राटू खारवेल ने अपने आक्रमणों द्वारा उत्तरापथ के राजाओं में आतंक उत्पन्न कर दिया, उन्हें अस्त-व्यस्त कर दिया, मगध की जनता में भारी भय का संचार कर दिया, अपने हाथियों को गंगानदी में पानी पिलाया तथा उन्हें (पाटलिपुत्र के) सांगेय नामक राजप्रासाद में प्रविष्ट कर दिया और मगधराज बृहस्पतिभित्र से अपने चरणों में प्रणाम करवाया। पूर्वकाल में नन्दराज द्वारा कलिंग से लायी गयी कलिंगजिन (अनजिन यस आदि-जिन) की प्रतिमा को तथा अंग-मगध राज्यों के बहुमूल्य रत्नों एवं धन सम्पत्ति को विजित सम्पत्ति के रूप में लेकर अपनी राजधानी में वह वापस आया। उपायन तथा विजित सम्पत्ति के रूप में प्राप्त धन से उसने अपनी महती विजय के विद्वस्वरूप (मन्दिरों पर) ऐसे अनेक शिखर बनवाये जिनमें रत्न आदि सैकड़ों बहुमूल्य पदार्थों से सुन्दर पच्चीकारी की गयी थी। उसी वर्ष उसने सुदूर दक्षिण (मदुरा) के पाण्ड्यनरेश से मैंट अथवा कर रूप से प्राप्त अभूतपूर्व एवं आश्चर्यकारी उपायन, मणि-माणिक्य-मुक्ता, हाथी, घोड़े, सेवकों आदि से भरे जलपोत प्राप्त किये । इस प्रकार यह महान नरेन्द्र समस्त प्रजाजनों एवं अधीन नृपतियों को वशीभूत करता हुआ और अपने विजयचक्र द्वारा साम्राज्य का विस्तार करता हुआ अपनी राजधानी में सुख से निवास करता था 1 अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में इस राजर्षि ने सुपर्वत-विजय चक्र (प्रान्त) में स्थित कुमारी-पर्यत पर अपने राजभक्त प्रजाजनों द्वारा पूजे जाने के लिए उन अईन्तों की पुण्य स्मृति में निषयकाएँ निर्माण करायी थीं जो निर्वाण-लाभ कर चुके थे। तपोधन मुनियों के आवास के लिए Diboodia 20 :: प्रमुख एतिहासिक जैन पुरुष और महिला
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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