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भारत के नये राज्यों में भी जाजमी, इसमें सन्देह नहीं । उत्तर-पश्चिम के अनाव देशों में भी सम्प्रति के समय में जैन प्रचारक भेजे गये और वहाँ जैन साधुओं के लिए अनेक विहार स्थापित किये गये। अशोक और सम्प्रति दोनों के कार्य से भारतीय संस्कृति एक विश्व संस्कृति बन गयी और आर्यावर्त का प्रभाव भारत की सीमाओं के बाहर तक पहुँच गया। अशोक की तरह उसके इस पोते ने भी अनेक इमारतें बनवायीं । राजपूताने की कई जैन कलाकृतियाँ उसके समय की कही जाती हैं। जैन लेखकों के अनुसार सम्प्रति समूचे भारत का स्वामी था ।" राजस्थान के अपने सर्वेक्षण में अब से लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व, कर्नल जेम्स टाड को उस प्रदेश में कई ऐसे प्राचीन भग्नावशेष मिले थे जी सम्प्रति द्वारा बनवाये गये मन्दिरों के अनुमान किये गये। कमलमेर - दुर्ग के निकट एक ऐसे ही प्राचीन जैन मन्दिर के अवशेषों को देखकर कर्नल टाड ने कहा था, "भारतवर्ष के बहुत से देवाचक और शैव लोगों की कारीगरी - बहुल मन्दिरावलि के साथ इस जैन मन्दिर की तुलना करने से उसकी अधिक विभिन्नता एवं सरल गठन तथा अनाडम्बरत्न दृष्टिगत होते हैं। मन्दिर की अत्यन्त प्राचीनता उसमें कारीगरी की अल्पता से ही प्रकट है। और इसी सूत्र से स्थिर करें कि जिस समय चन्द्रगुप्त के वंशधर सम्प्रति इस देश के सर्वोपरि राजा थे (ईसा के जन्म के दो सौ वर्ष पूर्व) उस समय का बना हुआ यह मन्दिर है। किंवदन्ती से ज्ञात होता है कि राजस्थान और सौराष्ट्र में जितने भी प्राचीन (जैन) मन्दिर विद्यमान हैं, उन सबके निर्माता सम्प्रति हैं। यह मन्दिर पर्वत के ऊपर बना हुआ है और वह पर्वत पृष्ठ ही इसकी भित्तिस्वरूप होने से यह काल के कराल दाँतों से चूर-चूर न होकर अबतक खड़ा है। इसके पास ही जैनों का एक और पवित्र देवालय दिखाई देता है, किन्तु वह बिलकुल दूसरी रीति से बनाया गया है।"
कई विद्वानों का यह भी मत है कि अशोक के नाम से प्रचलित शिलालेखों में से अनेक सम्पति द्वारा उत्कीर्ण कराये गयें हो सकते हैं। अशोक को अपने इस पीत्र से अत्यधिक स्नेह था अतएव जिन अभिलेखों में 'देवानांपियस्स पियदस्तिन लाजा' (देवता का प्रियदर्शिन् राजा ) द्वारा उनके अंकित कराये जाने का उल्लेख है वे अशोक के न होकर सम्प्रति के हों, यह अधिक सम्भव है; क्योंकि 'देवानांप्रिय' तो अशोक की स्वयं की उपाधि थी, अतएव सम्प्रति ने अपने लिए 'देवानांप्रियस्यप्रियदर्शिन' उपाधि का प्रयोग किया। विशेषकर जो अभिलेख जीवहिंसा निषेध और धर्मोत्सवों से सम्बन्धित है उनका सम्बन्ध सम्प्रति से जोड़ा जाता है। जो हो, प्रियदर्शी राजा के नामांकित उक्त अभिलेखों के आधार पर उनके प्रस्तोता नरेश द्वारा धर्मराज्य के सर्वोच्च आदर्शों के अनुरूप एक सदाचारपूर्ण राज्य स्थापित करने के प्रयत्नों के लिए उस राजर्षि की तुलना गौरव के सर्वोच्च शिखर पर आसीन इजराइली सम्राट् दाऊद और सुलेमान के साथ और स्वधर्म को शुद्ध स्थानीय सम्प्रदाय की स्थिति से उठाकर विश्वधर्म बनाने के प्रयास के लिए ईसाई सम्राट् कान्स्टेन्टाइन के साथ की
नन्द-मौर्य युग
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