SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ HowwwhATangibi0000000 "? REETर एक महान् प्रजावत्सल, शान्तिप्रिय एवं प्रतापी सम्राट् था। साथ ही अपने पिता कुपाल और माता कंचनमाला से उसे दृत धार्मिक संस्कार तथा भद्र एवं सौम्य परिणाम मिले थे। जैनसंघ की मागधी शाखा के नेता आचार्य सुहस्ति सम्प्रति के धर्मगुरु थे। उनके उपदेश से इसने एक आदर्श जैन नरेश को माँति जीवन व्यतीत करने का प्रादला किया। इसी समय जैनसंघ की इस शाखा ने भी मगध का परित्याग करके उज्जयिनी को अपना प्रधान केन्द्र बनाया, जहाँ उसे सम्मत से शक्तिशाली सम्राट् का साक्षात् एवं यथेच्छ आश्रय प्राप्त था, जबकि मगध पर आजीविक सम्प्रदाय के भक्त दशरथ मौर्य का शासन था। सम्प्रति का पारिवारिक जीवन भी सुखी था। उसके कई रानियों एवं अनेक पुत्र-पुत्रियों थीं। परिशिष्टपर्व, सम्प्रतिकथा, प्रभावकचरित आदि जैन ग्रन्थों में इस सम्राट के बड़े प्रशंसनीय वर्णन प्राप्त होते हैं। बौद्ध अनुश्रुतियों में भी उसके उल्लेख प्राप्त होते हैं। जिनेन्द्र की भक्ति, जैन मुरुओं का सेवा-सम्मान, जैन स्मारकों का निर्माण और जैनधर्म की प्रस्तावना एवं प्रचार के लिए सम्राट् सम्प्रति में जो अथक प्रयत्न किये, उनके लिए उसे श्राचकोत्तम श्रेणिक बिम्बिसार की कोटि में रखा जाता है और सर्वमहान जैन नरेशों में उसकी गणना की जाती है । वास्तव में बौद्ध अनुश्रुति में बौद्धधर्म के लिए अशोक ने जितना कुछ किया बताया जाता है, जैम अनुश्रुति में जैनधर्म के लिए सम्प्रति ने उससे कुछ अधिक हो किया बताया जाता है। अनेक जैन तीर्थस्थानों की वन्दना, पुराने जिनायतनों एवं तीर्थों का जीर्णोद्धार, अनगिनत नवीन जिनमन्दिरों एवं मूर्तियों का विभिन्न स्थानों में निर्माण एवं प्रतिष्ठा, विदेशों में जैनधर्म के प्रचार के लिए साधु एवं गृहस्थ विद्वान् प्रचारकों को भेजना, धोत्सवों का मनाना, साम्राज्य भर में हिंसा प्रधान जैनाचार का प्रसार करना, इत्यादि अनेक कार्यों का श्रेय इस सम्राट् को दिया जाता है। विन्सेण्ट स्मिथ के अनुसार सम्प्रति ने अरष, ईरान, आदि यवन देशों में भी जैन संस्कृति के केन्द्र या संस्थान स्थापित किये 1 अधार्य हेमचन्द्र के परिशिष्टपर्व प्रभृति जैन ग्रन्थों के आधार से प्रो. सत्यकेतु विद्यालंकार का कहना है कि "एक रात्रि में सम्प्रति के मन में यह विचार पैदा हुआ कि अनार्य देशों में भी जैनधर्म का प्रचार हो और जैन साध स्वच्छन्द रीति से विभर सकें। इसके लिए उसने इन देशों में जैन साधुओं को धर्म प्रचार के लिए भेजा। साधु लोगों ने राजकीय प्रभाव से शीघ्र ही जनता को जैनधर्म और जैनाचार का अनुगामी बना लिया। इस कार्य के लिए सम्पत्ति ने बहुत से लोकोपकारी कार्य भी किये। गरीबों को मुफ़्त भोजन बाँटने के लिए दानशालाएँ खुलवायीं । इन लोकोपकारी कार्यों से भी जैनधर्म के प्रचार में बहुत सहायता मिली। सम्प्रति द्वारा अनार्य देशों में प्रचारक भेजे गये, इसके प्रमाण अन्य ग्रन्थों में भी मिलते हैं। सम्प्रति ने बहुत से जैन विहारों का भी निमाण कराया था। ये विहार अनार्य देशों में भी बनवाये गये थे।" प्रो. जयचन्द्र विद्यालंकार का कथन है कि, "चाहे चन्द्रगुप्त के चाहे सम्प्रति के समय में जैनधर्म की बुनियाद तमिल 64 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy