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था। मथुरा के बौद्ध आचार्य उपगुप्त के भी area मा वाम समय वह आया। कुछ ही समय पश्चात् पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीति भी हुई। सम्राटू ने बुद्ध जन्मस्थान पर लगे राज्यकर को भी माफ़ कर दिया तथा अन्य भी कुछ कार्य बौद्धों के अनुकूल किये। अपने अन्तिम दिनों में वह राज्यकार्य से विरत होकर एक त्यागी गृहस्थ या प्रती श्रावक के रूप में रहने लगा प्रतीत होता है। उस काल में उसकी दानशीलता अतिशय को पहुँच गयी बतायी जाती है, और सम्मय है कि उसका अधिकतर लाभ बौद्धों की हुआ हो। इन्हीं सब कारणों से बौद्धों की अनुश्रुतियों में वह परम प्रभावक बौद्ध-नरेश के रूप में चित्रित किया गया प्रतीत होता है। ई. पू. 244 या 232 के लगभग अशोक मौर्य की मृत्यु हुई। इसमें सन्देह नहीं है कि उसकी गणना विश्व के सार्वकालीन महान् नरेशों में उचित ही की जाती
करुण कुणाल
सम्राट अशोक की सम्भवतया प्रथम पत्नी विदिशा की श्रेष्ठिकन्या असन्म्यमित्रा की कुक्षि से उत्पन्न राजकुमार कुणाल अपरनाम सुयश अत्यन्त सुन्दर, सुशिक्षित, सुसंस्कृत, कलारसिक, संगीत-विधा-निपुण एवं भद्र-प्रकृति का पुरुष-पुंगव था। विशेषकर उसको कुणाल पक्षी सदृश आँखों ने उसके रूप को अत्यन्त आकर्षक बना दिया था। उसका वह देवोपम रूप और अप्रतिम आँखें ही उसका दुर्भाग्य बन गयीं। उसको विमाता, सम्राट् की युवा यौद्ध सनी तिष्यरक्षिता ने अपनी मर्यादा भूल कुमार को अपने वश में करने का भरसक प्रयत्न किया, किन्तु राजकुमार शीलवान और सदाचारी था, अतः रानी अपनी कुचेष्टाओं में सफल न हो पायी। विफल-मनोरथ रानी ने प्रतिशोध की चाला में दग्ध हो एक घृणित षड्यन्त्र रचा। सम्रा ने राजकुमार को उज्जयिनी का प्रान्तीय शासक नियुक्त कर दिया था और उसने भी पिता की ही भाँति उसी प्रदेश की एक रूपगुण-सम्पन्ना श्रेष्टिकन्या कंचनमाला से विवाह कर लिया था। वह एकपत्नीव्रती था और अपनी प्रिया से अत्यन्त प्रेम करता था। उसी से उसका सम्प्रति नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। इधर दुष्टा रानी का कुचक्र चला। उसने राजकमार के नाम सम्राट से एक आदेशपत्र लिखवाया, जिसमें राजकुमार को पुरस्कृत करने की बात कही गयी थी। रानी ने पत्र को राजमुद्रांकित करके अपने विश्वस्त भृत्य के हाथ राजकुमार के पास भिजवा दिया, किन्तु भेजने से पूर्व उसमें लिखे 'अधीवताम्' शब्द को 'अन्धीयताम्' कर दिया। यह जानती थी कि राजकुमार कुणाल अत्यम्त पितृभक्त एवं राज्यभक्त है। वही हुआ-कुमार ने पत्र देखते ही, सम्राट् पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके अपनी दोनों आँखें फोड़ ली। शीघ्र ही बने विमाता के कुचक्र का पता भी लग गया। अन्य विपत्ति की भी आशंका थी, अतएव पत्नी और पुत्र को सुरक्षित स्थान में रख, भिखारी के भेष में वह
62 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ