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में जो सबसे बड़ा ऐतिहासिक आधार हैं, वह वे शिलालेख हैं जो उसके नाम ले प्रसिद्ध हो रहे हैं। मुख्यतया उन्हों के आधार से सम्राट् अशोक के व्यक्तिगत चरित्र, विचारों, धार्मिक विश्वासों, अन्य कार्यकलापों, राज्यकाल एवं प्रशासन आदि के इतिवृत्त का निर्माण और उसकी महत्ता का मूल्यांकन किया गया है। परन्तु ऐसे भी कई विद्वान् हैं जो इन सब शिलालेखों को केवल अशोक द्वारा ही लिखाये गये नहीं मानते, बल्कि उनमें से कुछ का श्रेय उसके पौत्र सम्प्रति को देते हैं। इन लेखों से अशोक को बौद्धधर्म का सर्वमहान् प्रतिपालक एवं भक्त चित्रित करनेवाली बौद्ध अनुश्रुतियों का भी विशेष समर्थन नहीं होता। वस्तुतः उक्त अभिलेखों के आधार पर अशोक के धर्म को लेकर विद्वानों में सर्वाधिक मतभेद है कुछ उनसे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि वह बौद्ध था और बौद्धधर्म के प्रचार के लिए ही उसने लेख ऑकेत कराये थे, तो कुछ अन्य विद्वानों के मतानुसार लेखों को भाव और तद्गत विचार
धर्म की अपेक्षा जैनधर्म के अधिक निकट हैं, और क्योंकि उसका कुलधर्म जैन था, अशोक स्वयं भी यदि पूरे जीवन भर नहीं तो कम से कम उसके पूर्वार्ध में अवश्य जैन था। ऐसे ही विद्वान् हैं, और उनकी बहुलता होती जाती है, जो यह मानते हैं कि अशोक न मुख्यतया बौद्ध था और न जैन, वरन् एक नीतिपरायण प्रजापालक सम्राट् था जिसने अपनी प्रजा के नैतिक उत्कर्ष करने के हेतु एक नवीन समन्वयात्मक, असाम्प्रदायिक एवं व्यावहारिक धर्म लोक के सम्मुख प्रस्तुत किया था । वस्तुतः वह भी व्यवहार एवं प्रशासन में अपने पूर्वजों की धर्म-निरपेक्ष नीति का ही अनुसर्ता था | यों उसने पशुवध का निवारण एवं मांसाहार का निषेध करने के लिए कड़े नियम बनाये थे । वर्ष के 56 दिनों में उसमें प्राणिबध सर्वथा एवं सर्वत्र बन्द रखने की आज्ञा जारी की थी। वे दिन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दिये गये पवित्र दिनों तथा जैन परम्परा के पर्व दिनों के साथ प्रायः पूरी तरह मेल खाते हैं। उपर्युक्त शिलालेखों में उसके द्वारा निग्रन्थी (नग्न जैन मुनियों) का विशेष रूप से आदर करने के भी कई उल्लेख हैं। जबकि सामान्य श्रमण शब्द से सर्वप्रकार के जैन साधुओं का बोध होता ही था, जिनमें उस काल में मगध आदि उत्तरी प्रदेशों में बहुलता से पाये जानेवाले आचार्य स्थूलिभद्र की परम्परा के खण्डवस्त्रधारी साधुओं का समावेश था। 'राजतरंगिणी' एवं 'आईने अकबरी' के अनुसार अशोक ने कश्मीर में जैनधर्म का प्रवेश किया था और इस कार्य में उसने अपने पूर्वज चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार का अनुकरण किया था। कहीं कहीं अशोक के पुत्र जालोक को कश्मीर में जैनधर्म के प्रवेश का श्रेय दिया जाता है जो उसने सम्भवतया पिता की स्वीकृति से ही किया
ऐसा लगता है कि कलिंग युद्ध के आस-पास अशोक ने तिष्यरक्षिता नाम की एक बौद्ध सुन्दरी से विवाह कर लिया था । अधेड़ सम्राट् अपनी युवा बौद्ध पत्नी को प्रसन्न करने के लिए बौद्धधर्म में सम्भवतया कुछ विशेष दिलचस्पी लेने लगा
नन्द-मौर्य युग