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आत्म कल्याण करने के इचहक थे। महागज चन्द्रगुप्त के अत्यन्त अनुरोधवश उन्होंने युथक सम्राट् बिन्दुसार का पथ-प्रदर्शन करने के लिए वह विचार स्थगित कर दिया, किन्तु दो-तीन वर्ष बाद ही वह भी मन्त्रिय का भार अपने शिष्य संधागुप्त को सौंपकर मुनिदीक्षा लेकर तपश्चरण के लिए चले गये थे। भगवती आराधना आदि अत्यन्त प्राचीन जैन ग्रन्थों में मुनीश्वर चाणक्य की दुर्धर तपस्या और घोर उपसर्ग सहते हुए सललेखनापूर्वक देह-त्याग करने के वर्णन मिलते हैं। भारत के उस महान मौर्य साम्राज्य के कुशल शिल्पी, नियामक और संचालक तथा राजनीति के विश्वविश्रुत ग्रन्थ 'अर्थशास्त्र' के मूल प्रणेता, नीति के आचार्य जैन मन्त्रीश्वर चाणक्य और उनके सुशिष्य जैन सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की अद्धितीय जोड़ी, जैन इतिहास की ही नहीं, सम्पूर्ण भारतीय इतिहास की अमर उपलब्धि है।
इन दोनों राजनीतिक विभूतियों की सर्वोपरि विशेषता यह थी कि उन्होंने व्यक्तिगत धार्मिक विश्वासों को राजनीति एवं प्रशासन से सर्वथा असम्पृक्त रखा। एक शस्त्रवीर क्षत्रिय था तो दूसरा शास्त्रवीर ब्राह्मण, और निजी धार्मिक आस्था की दृष्टि से दोनों ही परम जैन थे, ऐसे कि अन्तिम जीवन दोनों ने ही आदर्श निर्ग्रन्थ तपस्वी जैन पुनि के रूप में व्यतीत किया । तथापि एक विशाल साम्राज्य के सम्राट एवं प्रधानामात्य के रूप में उनका समस्त लोकव्यवहार पूर्णतया व्यावहारिक, नीतिपूर्ण, असाम्प्रदायिक एवं धर्मनिरपेक्ष था। साम्राज्य का उत्कर्ष और प्रतिष्ठा तथा प्रजा का हित और मंगल जैसे बने, सम्पादन करना ही उनका एक मात्र ध्येय था। यह आदेश आधुनिक युग की राजनीति, जो शासकों और जैन-नेताओं के लिए भी स्पृहणीय है सहज साध्य नहीं है। विन्दुसार अमित्रघात
सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के उनकी पहमहिषी नन्दसुता सुप्रभा से उत्पन्न ज्येष्ठ पुत्र युवराज बिन्दुसार अमित्रघात (यूनानी लेखकों के एमिट्रोचेटिस) ने पिता के जीवन में ही उत्तराधिकार प्राप्त कर लिया था। सिंहसेन, भद्रसार आदि उसके कई अन्य नाम भी बताये जाते हैं। ई. पू. 298 में वह सिंहासनारद हुआ और लगभग पचीस वर्ष पर्यन्त विशाल एवं शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य का एकाधिपति बना रहा। प्रारम्भ में महामन्त्री चाणक्य ही उसके पथ-प्रदर्शक रहे। युवक सम्राट् उनका बथोचित आदर-सम्मान ती करता था, परन्तु उनके प्रभाव से असन्तुष्ट भी था। राज्यकार्य में तो आर्य चाणक्य जद कोई सक्रिय भाग प्रायः लेते नहीं थे, किन्तु उनके असीम अधिकार अब भी पूर्ववत् थे। बिन्दुसार का यह असन्तोष उनसे छिपा नहीं रहा, अतएव वह संसार का त्याग करके मुनि हो गये। जाने के पूर्व अमात्य पद का भार वह अपने प्रशासन-कुशल एवं सुयोग्य शिष्य राधागुप्त को सौंप गये थे। बिन्दुसार अब पूर्णतया स्वाधीन-स्वच्छन्द था, किन्तु चन्द्रगुप्त और चाणक्य के अभिभावकत्व
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मन्द-भायं युग :: 57