SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ था। बड़े-बड़े सेठ और सार्थवाह थे, नाना प्रकार के उद्योग-धन्धे थे, राजा और प्रजा दोनों ही अत्यन्त धन वैभव सम्पन्न थे, विद्वानों का देश में आदर था। स्वयं सम्राट श्रमणों एवं ब्राह्मणों को राज-प्रासाद में आमन्त्रित करके अथवा उसके पास जाकर आवश्यक परामर्श लेते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में सम्पूर्ण भारतवर्ष के रूप में चक्रवर्ती क्षेत्र की जो परिभाषा है वही समुद्र पर्यन्त, आसेतु-हिमांचल भूखण्ड इस मौर्य सम्राट के अधीन था, जो विजित, अन्त और अपरान्त क्षेत्रों के भेद से तीन वगों में विभक्त था। जो भाग सीधे केन्द्रीय शासन के अन्तर्गत था वह विजित कहलाता था और अनेक चक्रों में विभाजित था। त्रिरत्न, चैत्ववृक्ष, दीक्षावृक्ष आदि जैन सांस्कृतिक प्रतीकों से युक्त कुछ सिक्के भी इस मौर्य सम्राट् के प्राप्त हुए हैं। व्यक्तिगत रूप से सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य धार्मिक भी था और साधु-सन्तों का विशेष आदर करता था; जबकि ब्राह्मणीय साहित्य में उसे वृषल या शूद्र तथा दासी-पुत्र कहा है। जैन अनुश्रुतियों में उसे सर्वत्र शुद्ध क्षत्रिय कुलोत्पन्न कहा है। ईसवी सन को प्रारम्भिक शताब्दियों के प्राचीन सिद्धान्त-शास्त्र तिलोवपण्णत्ति में चन्द्रगुप्त को उन मुकुटबद्ध माण्डलिक सम्राटी में अन्तिम कहा गया है जिन्होंने दीक्षा लेकर अन्तिम जीवन जैन मुनि के रूप में ध्यतीत किया था। वह आचार्य भद्रवाह-श्रुतवली की आम्नाय का उपासक था और उनका ही पदानुसरण करने का अभिलाषी था। अतएव लगभग पचीस वर्ष राज्यभोग करने के उपरान्त ईसापूर्व 298 में पुत्र बिन्दुसार को राज्यभार सौंपकर और उसे गुरु चाणक्य के ही अभिभावकत्व में छोड़ दक्षिण की ओर प्रयाण कर गया। मार्ग में सुराष्ट्र के गिरिनगर की जिस गुफा में उसने कुछ दिन निवास किया, वह सभी से चन्द्रगुफा कहलाने लगी। सम्भवतया यहीं उसने मुनि-दीक्षा ली थी। वहीं से चलकर यह राजर्षि कणाटकदेशस्थ श्रवणबेलगोल पहुँचा जहाँ आचार्य भद्रबाहु दिवंगत हुए थे। उस स्थान के एक पर्वत पर मुनिराज चन्द्रगुप्त ने तपस्या की और वहीं कुछ वर्ष उपरान्त सल्लेखनापूर्वक देह त्याग किया। उनकी स्मृति में ही यह पर्वत चन्द्रगिरि नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसकी जिस गुफा में उन्होंने समाधिमरण किया था उसमें उनके चरण-चिन्ह बने हैं और वह स्थान चन्द्रगुप्त-यसति के नाम से प्रसिद्ध रहता आया है। वहीं आस-पास लगभग डेढ़ हजार वर्ष प्राधीन कई शिलालेख भी अंकित हैं जिनमें इस राजर्षि के जीवन की उन्नत महान् अन्तिम घटना के उल्लेख प्राप्त होते हैं। मूलसंधी मुनियों का चन्द्रगुप्तगचा या चन्द्रगया इन्हीं चन्द्रगुप्ताचार्य के नाम पर स्थापित हुआ माना जाता है। इस महान् जैन सम्राट् के समय में ही भारतवर्ष प्रथम बार तथा अन्तिम बार है भी, यदि उसके स्वयं के पुत्र बिन्दुसार एवं पौत्र अशोक को छोड़ दें, अपनी राजनीतिक पूर्णता एवं साम्राज्यिक एकता को प्राप्त हुआ और मगध साम्राज्य के रूप में भारतीय साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष को पहुंचा था। चाणक्य भो पर्याप्त वृद्ध हो चुके थे और राजकार्य से विरत होकर 56 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं,
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy