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________________ प्राचीर का वही प्रमुख द्वार था। वृद्धनन्द ने चाणक्य को धर्म की दुहाई देकर याचना की कि उसे सपरिवार सुरक्षित अन्यत्र चला जाने दिया जाए। चाणक्य की अभीष्ट सिद्धि हो चुकी थी। उसकी भीषण प्रतिज्ञा की लगभग पचीस वर्ष के अथक प्रयत्न के उपरान्त प्रायः पूर्ति हो चुकी थी और यह क्षमा का महत्व भी जानता था, अतएव उसने नन्दराज की सपरिवार नगर एवं राज्य का परित्याग करके अन्यत्र चले जाने की अनुमति उदारतापूर्वक प्रदान कर दी और यह भी कह दिया कि जिस रथ में वह जाए उसमें जितना धन वह अपने साथ ले जा सके वह भी ले जाए। अस्तु नन्दराज ने अपनी दो पत्नियों और एक पुत्री के साथ कुछ धन लेकर रथ में सवार हो नगर का परित्याग किया। किन्तु जैसे ही नन्द का रथ पतन का हुआ चन्द दुरंधरा अपरनाम सुप्रभा ने शत्रु सैन्य के नेता विजयी वीर चन्द्रगुप्त के सुदर्शन रूप की जो देखा तो प्रथम दृष्टि में ही वह उसपर मोहित हो गयी और प्रेमाकुल दृष्टि से पुनः पुनः उसकी ओर देखने लगी। इधर चन्द्रगुप्त की वही दशा हुई और वह श्री अपनी दृष्टि उस रूपसी राजनन्दिनी की ओर से न हटा सका। इन दोनों की दशा को लक्ष्य करके नन्दराज और चाणक्य दोनों ने ही उनके स्वयंचरित परिव की सहर्ष स्वीकृति दे दी। तत्काल सुन्दरी सुप्रभा पिता के रथ से कूदकर चन्द्रगुप्त के रथ पर जा चढ़ी। किन्तु इस रथ पर उसका पग पड़ते ही उसके पहिये के नी आरे तड़ाक से टूट गये ( नव अरगा भग्गा) | सबने सोचा कि यह अमंगल-सूचक अपशकुन है, किन्तु समस्त विद्याओं में पारंगत चाणक्य ने उन्हें समझाया कि भय की कोई बात नहीं है, यह तो एक शुभ शकुन है और इसका अर्थ है कि इस नव-दम्पती की सन्तति नौ पीढ़ी तक राज्यभोग करेगी। ga अब वीर चन्द्रगुप्त मौर्य नन्ददुहिता राजरानी सुप्रभा को अग्रमहिषी बनाकर मगध के राज्य सिंहासन पर आसीन हुआ और नन्दों के धन-जनपूर्ण विशाल एवं शक्तिशाली साम्राज्य का अधिपति हुआ। इस प्रकार लगभग चार वर्षों के अनवस्त युद्ध-प्रयत्नों एवं संघर्षो के फलस्वरूप ई. पू. 317 में पाटलिपुत्र में नन्दवंश का पतन और उसके स्थान में मौर्यवंश की स्थापना हुई। चन्द्रगुप्त को सम्राट् घोषित करने के पूर्व चाणक्य ने नन्द के स्वामिभक्त मन्त्री राक्षस के षड्यन्त्रों को विफल किया और उसे चन्द्रगुप्त की सेवा में कार्य करने के लिए राजी कर लिया। उसने किरातराज पर्वतेश्वर को भी राक्षस द्वारा चन्द्रगुप्त की हत्या के लिए भेजी गयी विषकन्या के प्रयोग से मरवा डाला और चन्द्रगुप्त का मार्ग सब ओर से निष्कण्टक कर दिया। अन्य पुराने योग्य मन्त्रियों, राजपुरुषों एवं कर्मचारियों को भी उसने साम-दाम-भय-भेद सें नवीन सम्राट् के पक्ष में कर लिया। वह स्वयं महाराज का प्रधानामात्य रहा। मन्त्रीश्वर चाणक्य के सहयोग से सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य ने साम्राज्य का विस्तार एवं सुसंगठन किया और उसके प्रशासन की सुचारु व्यवस्था की। इस नरेश के शासनकाल में राष्ट्र की शक्ति और समृद्धि की उत्तरोत्तर वृद्धि होती गयी। ई. पू. नन्द-मौर्य युग 53
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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