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सम्मुख ये बुरी तरह पराजित हुए और जैसे-तैसे प्राण बचाकर भाग निकले। मन्द की सेना ने इनका दूर तक पीछा किया। दो बार ये पकड़े जाने से बाल-बाल बचे। चाणक्य की तुरत-बुद्धि और चन्द्रगुप्त के साहस तथा गुरु के प्रति अटूट विश्वास ने ही इनकी रक्षा की। इस भाग-दौड़ में एक बार चन्द्रगुप्त भूख से मरणासन्न हो गया था। उस अवसर पर भी चाणक्य ने ही उसकी प्राणरक्षा की। एक दिन रात्रि के समय किसी गाँव में एक झोपड़े के बाहर पड़े हुए इन दोनों ने उस वृद्धा द्वारा अपने पुत्रों को डाँटने के मिस यह कहते सुना कि चाणक्य अधीर एवं मूर्ख है। उसने सीमावर्ती प्रान्तों को हस्तगत किये बिना ही एकदम साम्राज्य के केन्द्र पर धावा बोलकर भारी मूल की है। वृद्धापुत्र थाली में परोसी गरम-गरम खिचड़ी (या दलिया) खाने बैठे थे और एकदम उसके बीच में हाथ डालकर उन्होंने अपने हाथ जला लिये थे। वृद्धा चाणक्य का दृष्टान्त देकर उन्हें इस मुर्खता के लिए घरज रही थी और कह रही थी कि पहले किनारे-किनारे से खाना प्रारम्भ किया जाएगा तो शनैः-शनैः बीच के भाग पर भी बिना हाथ जलाये सहज ही पहुँचा जा सकता है। चाणक्य को अपनी भूल मालूम हो गयी, और उन दोनों ने अब नवीन उत्साह एवं कौशल के साथ तैयारी आरम्भ कर दी। विन्ध्य अटवी में पूर्व-संधित अपने विपुल धन की सहायता से उन्होंने सुदृत सैन्य संग्रह करना शुरू कर दिया। पश्चिमोत्तर प्रदेश के यवन, काम्बोज, पारसीक, खस आदि तथा अन्य सीमान्ती की पुलात, शबर आदि म्लेच्छ जातियों की भी एक बलवान् सेना बनायी। वाहीक उनके अधीन थे ही, पंजाब के मल्ल (मालद) गणतन्त्र को भी अपना सहायक बनाया और हिमवतकूट अथवा गोकर्ण (नेपाल) के किरात वंश के ग्यारहवें राजा पंचम उपनाम पर्वत या पर्वतेश्वर को भी विजित साम्राज्य का आधा भाग दे देने का प्रलोभन देकर अपनी
और मिला लिया। अन्य चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने नन्द साम्राज्य के सीमावर्ती प्रदेशों पर अधिकार करना शुरू किया। एक के पश्चात एक ग्राम, नगर, दुर्ग और गढ़ छल-बल-कौशल से जैसे भी बना ये हस्तगत करते चले। विजित प्रदेशों एवं स्थानों को सुसंगठित एवं व्यवस्थित करते हुए तथा अपनी शक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए अन्ततः ये राजधानी पाटलिपुत्र तक जा पहुंचे।
नगर का घेरा डाल दिया गया और उसपर अनवरत भीषण आक्रमण किये गये और उसके भीतर फूट एवं षड्यन्त्र भी रचाये गये। चन्द्रगुप्त के पराक्रम, रणकौशल एवं सैन्य-संचालन-पटुता, चाणक्य की कूटनीति एवं सदैव सजग गृद्ध-दृष्टि तथा पर्वत की दुस्साहसपूर्ण बर्बरयुद्ध प्रियता, तीनों का संयोग था। नन्द्र भी वीरता के साथ डटकर लड़े, किन्तु एक-एक करके सभी नन्दकुमार लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हुए । अन्ततः वृद्ध महाराज महापद्मनन्द ने हताश होकर धर्मद्वार के निकट हथियार डाल दिये और आत्मसमर्पण कर दिया। अर्थशास्त्र में जिसे श्राह्मणद्वार और निझनकया-जासन में महामार कहा है, सम्भवतया यह धर्मद्वार नगर
52 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ