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पड़ें। और अधिक परीक्षा करने के लिए उसने बाल राजा के सम्मुख वाचक बनकर भिक्षा माँगी । बालक ने तत्परता से कहा 'बोलो क्या चाहते हो, जो चाहो अभी मिलेंगा'। चाणक्य ने कहा, 'मैं गोदान चाहता हूँ, किन्तु मुझे भय है कि तुम मेरी मांग पूरी न कर सकोगे, अन्य लोग इसका विरोध करेंगे।' बाल राजा ने तुरन्त तैश के साथ प्रत्युत्तर दिया, यह आप क्या कहते हैं : राजा के सामने से कोई याचक बिना इच्छित दान लिये चला जाए, यह कैसे हो सकता है? पृथ्वी कीरों के ही उपभोग के लिए है (बीर भोज्जा पुष्ई) । बालक के इस उत्तर से उसकी राज्योचित उदारता, अन्य सद्गुणों एवं व्यक्तित्व का चाणक्य पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह उसके साथियों से उसका परिचय प्राप्त करने का लोभ संवरण न कर सका। बालकों ने जब उसे बताया कि वह ग्राम मयहर मोरिय का दौहित्र है, नाम चन्द्रगुप्त है और एक परिव्राजक का पुत्र कहलाता है, तो चाणक्य को यह समझने में देर न लगी कि यह वही बालक है जिसकी माता का दोहला उसने यक्ति से शान्त किया था। वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बालक के अभिभावकों से मिलकर, उन्हें उनके बचन का स्मरण कराके बालक को अपने साथ लेकर उस स्थान से पलायन कर गया। उसने प्रतिज्ञा की कि इस चन्द्रगुप्त को ही राजा बनाकर वह अपने स्वप्नों को साकार करेमा । - कई वर्ष तक उसने चन्द्रगुप्त की विविध अस्त्र-शस्त्रों के संचालन, युद्ध विद्या, राजनीति तथा अन्य उपयोगी ज्ञान-विज्ञान एवं शास्त्रों की समुचित शिक्षा दी। धन का उसे अब कोई अभाब भी नहीं। धीरे-धीरे उसके लिए बहुत से युवक कीर साथी भी जुटा दिये। ई. पू. 320 में भारतभूमि पर जब यूनानी सम्राट सिकन्दर महान ने आक्रमण किया तो उससे स्वदेश भक्त चाणक्य का हृदय बहुत दुखी हुआ, किन्तु विश्व-विजयी सिकन्दर की प्रसिद्धि से भी वह प्रभावित हुआ ! उसने शिष्य चन्द्रगुप्त की सलाह दी कि वह यूनानियों की सैनिक पद्धति, लैन्य संचालन और युद्ध कौशल का उनके बीच कुछ दिनों रहकर प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करे। 'यूनानी शिविर में रहते हुए चन्द्रगुप्त पर गुप्तचर होने का सन्देह किया गया और उसे बन्दी बनाकर सम्राट के सम्मुख उपस्थित किया गया। किन्तु उसकी निर्भीकता एवं तेजस्विता से सिकन्दर इतना प्रसन्न हुआ कि उसने उसे मुक्त ही नहीं कर दिया, वरन् पुरस्कृत भी किया। सिकन्दर के ससैन्य देश की सीमान्त के बाहर निकलते ही चन्द्रगुप्त ने पंजाब के धाहीकों को उभाड़कर यूनानो सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया. यूनानियों द्वारा अधिकृत प्रदेश के बहुभाग को स्वतन्त्र कर लिया, और ई. पू. 329 के लगभग चाणक्य के पथ-प्रदर्शन में मगध-राज्य की सीमा पर अपना एक छोटा-सा स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में भी सफल हो गया।
ई. पू. 321 के लगभग चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने एक छोटे से सैन्यदल के साथ छमवेष में नन्दों की राजधानी पाटलिपुत्र में प्रवेश किया और दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। चाणक्य के कूट कौशल के दावजूद नन्दों की असीम सैन्यशक्ति के
मन्द-मौर्य युग ::51