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612 में उसने अवन्ति को विजय करके उज्जयिनी को फिर से साम्राज्य की उपराजधानी बनाया । मगध से नन्दों का उच्छेद हो जाने पर भी उज्जविनी में उनके कुछ वंशज या सम्बन्धी स्वतन्त्र बने रहे प्रतीत होते हैं। यह भी सम्भव है कि वृद्ध महापद्म नन्द को इसी नगर में रहने की अनुमति दे दी गयी हो और अब उसकी मृत्यु हो गयी हो। स्यात् यही कारण है कि कुछ जैन अनुश्रुतियों में नन्दवंश का अन्त महावीर नि. सं. 210 (ई. यू. 317) में और कुछ में म. नि, सं. 215 (ई. पू. 312 कथन किया गया है।
उज्जयिनी पर अधिकार करने के पश्चात् चन्द्रगुप्त ने दक्षिण भारत की दिग्विजय के लिए प्रयास किया। मालवा से सुराष्ट्र होते हुए उसने महाराष्ट्र में प्रवेश किया। सुराष्ट्र में उसने गिरिनगर (उज्जयन्त-गिरि) में भगवान नेमिनाथ की वन्दना की और पर्वत की तलहटी में सुदर्शन नामक एक विशाल सरोवर का उस प्रान्त के अपने राज्यपाल वैश्य पुष्पगुप्त की देख-रेख में निर्माण कराया। उक्त सुदर्शन सरोवर के तट पर निर्ग्रन्थ मुनियों के निवास के लिए गुफाएँ (लेण) भी बनवायीं, जिनमें से प्रधान लेण चन्द्रगुफा के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाराष्ट्र, कोकण, कपाटक, आन्ध्र एवं तमिल देश पर्यन्त चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपनी विजय-वैमयन्ती फहरायी। प्राचीन तमिल साहित्य, दाक्षिणात्य अनुश्रुतियों एवं कतिपय शिलालेखों से मौयों का उक्त दक्षिणीय प्रदेशों पर अधिकार होना पाया जाता है। दक्षिण देश की इस विजय-यात्रा में एक अन्य प्रेरक कारण भी था। चन्द्रगुप्त का निज कुल मोरिय आचार्य भद्रबाहु-श्रुतकेवली का भक्त था। पूर्वोक्त दुष्काल के समय इन आचार्य के ससंघ दक्षिण देश को विहार कर जाने पर भी वे लोग उन्हीं की आम्नाय के अनुबायी रहे और मगध में रह जानेवाले स्थूलिभद्र आदि साधुओं सड्स उनकी परम्परा को उन्होंने मान्य नहीं किया। भद्रबाहु की शिष्य परम्परा में जो आचार्य इस बीच में हुए वह दक्षिण देश में ही रहे, तथापि उत्तरभारत (मगध आदि) के अनेक जैनीजन स्वयं को आचार्य भद्रबाहु-श्रुतकेवली का ही अनुयायी मानते और कहते रहे। चन्द्रगुप्त, चाणक्य आदि इसी आम्नाय के थे। अतएव आनाय-गुरु भद्रबाहु ने कर्णाटक देश के जिस कटवप्र अपरनाम कुमारीपर्वत पर समाधिमरणपूर्वक देहत्याग किया था, पुण्य-तीर्थ के रूप में उसकी वन्दना करना तथा उक्त आचार्य की शिष्य परम्परा के मुनियों से धर्म लाभ लेना और उनकी साता-सुविधा आदि की व्यवस्था करना ऐसे कारण थे जो सम्राट की इस दक्षिण यात्रा में प्रेरक रहे प्रतीत होते हैं।
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल की एक अन्य अति महत्वपूर्ण घटना ई. पू. 10 में मध्य एशिया के महाशक्तिशाली यूनानी सम्राटू सेल्युकस निकेतर द्वारा भारतवर्ष पर किया गया भारी आक्रमण था। चन्द्रगुप्त-जैसे नरेन्द्र और चाणक्य-जैसे मन्त्रीराज असावधान कैसे रह सकते थे। उनका गुप्तचर विभाग भी सुपुष्ट था। मौर्य सेना ने तुरन्त आगे बढ़कर आक्रमणकारी की गति को रोका। स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त
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54 :: प्रपुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ