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अपने अध्यवसाय से योग्य समय में समस्त विद्याओं एवं शास्त्रों में वह पारंगत हो गया। वशोमति नाम की एक श्यामा सुन्दरी के साथ इसका विवाह भी हो गया। और यह ब्राह्मणोचित शिक्षावृत्ति से आपेक्षिक दरिद्रता के साथ जीवन-यापन करने लगा। एक बार उसकी पत्नी अपने भाई के विवाह में सम्मिलित होने के लिए अपने मायके गयी। यहाँ उसकी निराभरण एवं अति साधारण वेश-भूषा देखकर उसकी और उसके पति की दरिद्रला का उसकी सम्पन्न बहनों, बहनोइयों तथा अन्य लोगों ने उपहास किया, जिससे वह बड़ी दुरडी हुई 1 स्वाभिमानी चाणक्य ने जब वह वृत्तान्त सुना तो उसे बड़ी आत्मग्लानि हुई और धनोपार्जन का दृढ़ निश्चय करके यह परदेश के लिए घर से निकल पड़ा। महाराज सर्वार्थसिद्धि महापानन्द विद्वानों का बड़ा आदर करता है और उन्हें पुष्कल दानादि से सन्तुष्ट करता है, यह बात जब चाणक्य ने स्थान-स्थान में सुनी तो वह पाटलिपुत्र जा पहुंचा। वहीं उसने राजसमा के समस्त पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित. करके महाराज के दान विभाग (दाणारग) के अध्यक्ष का पद प्राप्त कर लिया, जिसे संघ-ब्राह्मण भी कहते थे। किन्तु उसकी कुरूपता, अभिमानी प्रकृति एवं उद्धत स्वभाव के कारण युवराज सिद्धपुत्र हिरण्यगुप्त धननन्द चाणक्य से रुष्ट हो गया और उसने उसका अपमान किया। कोई कहते हैं कि चाणक्य का यह अपमान महाराज नन्द और युवराज की उपस्थिति में दानशाला की परिचारिका द्वारा उनकी प्रथम भेंट के अवसर पर ही किया गया था। जो हो, अपमान से क्षुब्ध और कृपित चाणक्य ने भरी सभा में यह भी प्रतिज्ञा की कि, "जिस प्रकार उग्रयायु का प्रचण्ड' वेग अनेक शाखा समूह सहित विशाल एवं उतुंग वृक्षों की जा से उखाड़ फेंकता है, उसी प्रकार है नन्द ! मैं सेट, सेरे पुत्रों, मृत्यों, मित्रादि का समस्त वैभव सहित समूल नाश करूँगा।"
क्रोध से तप्तायमान चाणक्य ने पाटलिपुत्र का तत्काल परित्याग कर दिया। इस समय उसे उस भविष्यवाणी का स्मरण हुआ जो उसके जन्मकाल में जैन मुनियों ने की थी कि वह बड़ा होकर किसी अन्य व्यक्ति के मिस मनुष्यों पर शासन करेगा (एताहे वि बिंबान्तरियो सया भविस्सई ति)। अतएव परिव्राजक के भेष में अब घाणक्य एक ऐसे व्यक्ति की खोज में फिरने लगा जो एक बड़ा राजा होने के सर्वया उपयुक्त हो।
तराई प्रदेश में नन्द के साम्राज्य के ही भीतर पिप्पलीवन के मोरियों का गणतन्त्र था। यह लोग श्रमणोपासक व्रात्य क्षत्रिय थे। स्वयं महावीर के एक गणधर मोरियपत्र इसी जाति के थे और इस जाति में जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। इनका एक पूरा ग्राम मयूरपोषकों का ही था। मुनि, आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक आदि समस्त जैन साधु-साध्वियों मयूरपिशधारी होते थे और उस काल में उनकी संख्या सहसों में थी। अतएव मयूरपोषक एवं मयुर-
पिछी निर्माण का पयसाय पर्याप्त महत्वपूर्ण था। बौद्ध ग्रन्थ महावंश की प्राचीन टीका के अनुसार कोसल के युवराज बिड्डुभ के
चन्द्र-मौर्य युग :: 49