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के परिणाम से प्रभावित होकर उसने गंगा नदी से कृषि की सिंचाई के लिए एक नहर निकाली थी जो भारतवर्ष की सम्भवतया सर्वप्रथम महर थी। राजधानी के निकट गंगा के गर्भ में उसका विशाल कोषागार था। उसने पाँच स्तूप भी निर्माण कराये थे, जिनके भीतर विपुल धनराशि, सुरक्षित रखी गयी थी। तौलने के बाँटों व मापों आदि के व्यवस्थीकरण का श्रेय भी इसी नन्द सम्राट को है। यह दानी भी बड़ा था। एक विद्वान संघ-ब्राह्मण की अध्यक्षता में उसका दान-विभाग संचालित होता था और उसकी दामशाला में विभिन्न याचकों को विद्युल द्रब्य दान दिया जाता था। नन्दीश्वर विधान के उपरान्त कार्तिकी अष्टाहिका नामक जैन पर्व के अन्तिम दिन (कार्तिकी पूर्णिमा को) सर्वाधिक दान किया जाता था। उसका प्रधान मन्त्री शकटाल था। राजा का कोपभाजन होने पर उसने अपने पुत्र से ही अपनी हत्या कर ली थी। उसके पश्चात् स्वामिभक्त राक्षस प्रधानामात्य हुआ। महापय विद्वानों का भी आदर करता था ! अनेक विद्वान उसके दरबार में आश्चय पाते थे। शास्त्रार्थों में भी बह रस लेता था। पूर्वनन्दों की भाँति सम्राट् महापन और उसके पुत्र एवं अन्य परिजन भी जैनधर्म के अनुयायी थे, इस विषय में विद्वानों को प्रायः कोई सन्देह नहीं है। लगभग चौतीस वर्ष राण्य करने के उपरान्त ई. पू. 329 के लगभग महापा ने राज्यकार्य से प्रायः अवकाश ले लिया था और राज्याधिकार घननन्द आदि आठों "पुत्रों की संयुक्ता पीवी पि समकार्य अब भी नाम से उसी के चलता था। सम्भव है कि राजा प्रतिमाधारी प्रती श्रावक के रूप में रहने लगा हो। इस काल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रथम घटना, यूनानी सम्राट सिकन्दर महान् का पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण था, जिसके अनेक अच्छे और बुरे परिणाम हुए। इन यूनानियों को सीमान्त के गान्धार, तक्षशिला आदि नगरों के निकटवर्ती अन्य प्रदेशों में ही नहीं, वरन सम्पूर्ण पंजाब और सिन्ध में यत्र-तत्र अनेकों नग्न (दिगम्बर) निर्गन्ध साधु मिले थे जिनका उन्होंने जिम्नोसोफ़िस्ट, जिम्नेटाई, जेनोइ आदि नामों से उल्लेख किया है। इस विषय में प्राय: मतभेद नहीं है कि इन शब्दों से आशय तत्कालीन एवं तत्त्रदेशीय दिगम्बर जैन मुनियों का है। सिन्धु-घाटी में ऐसे ही कुछ साधुओं का उन्होंने औरेटाई ओर वैरेटाइ शब्दों से उल्लेख किया है। ये दोनों शब्द भी जैन हैं। औरटाई से अभिप्राय आरातीय का है जो प्राचीन काल में जैन मुनियों के एक वर्ग के लिए प्रयुक्त होता था और कैरेटाइ का भारतीय रूप "प्रात्य' (व्रतधारी) है, जो ब्राह्मण विरोधी श्रमणोपासक के लिए प्रयुक्त होता था। उपर्युक्त जैन साधुओं में से कुछ के हिलोबाई' (क्नवासी) नाम दिया गया है और उन्हें सर्वश निस्पृह, दिगम्बर, अपरिग्रही, पाणितल-भोजी, शुद्ध शाकाहारी, ज्ञानी-ध्यानी-तपस्वी सूचित किया गया है। ऐसे ही भण्डन एवं कल्याण नामक दो मुनियों से स्वयं सम्राट सिकन्दर ने भी साक्षात्कार एवं वर्धा-वार्ता की थी। सम्राट् के आग्रह पर कल्याण मुनि तो उसके साथ बाबुल भी गये थे जहाँ उन्होंने समाधिमरण किया था। यूनानी लेखकों
46 :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएं