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________________ हावाकर एक साहसी एवं चत्तर यवक महापद्य ने राज्य सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया । इस नये राजा के अन्य नाम सार्थसिद्धि और उग्रसेन यूनानी लेखकों का एमेज़) प्राप्त होते हैं। कभी-कभी भ्रम से उसे धननन्द, धनानन्द या घनानन्द भी कहा माता है, किन्तु यह नाम उसका नहीं, उसके ज्येष्ठ पुत्र युवराज हिरण्यगुप्त या हरिमुफ्त) का अपरनाम रहा प्रतीत होता है। महापद्मनन्द के जन्म के विषय में विभिन्न किंवदन्तियाँ हैं। कुछ पूर्व- रामदास नपिका पुत्र : १. कहते हैं तो कुछ. उसे दिवाकीति नामक नापिल नाई) के सम्बन्ध से राजा की एक रानी द्वारा उत्पन्न हुआ. बताते हैं। ब्राह्मणों के साहित्य में उसे शून्न: या शूद्रजात कहा है, किन्तु जैन साहित्य में सर्वत्र उसे और उसके वंशजों को क्षत्रिय कहा है। इसमें सन्देह नहीं है. कि. बह राज्यवंश से ही सम्बन्धित धा; यद्यपि महाराज महानन्दिन का न्यायपूर्वक उत्तराधिकारी नहीं था। सिहासन को उसने छल-बल-कौशल से ही हस्तमत्त किया था। इतिहास में प्रात्यनन्दि से महानन्दि पर्वन्त राजे पूर्वनन्द कहलाते हैं और महापा तथा इसके वंशज उत्तरनन्द या नबनन्दः। महापद्म के आठ पुत्र थे, और क्योकि अपने अन्तिम वर्षों में उसने सज्य कार्य अपने चन घनानन्द आदि पुत्रों को ही प्रायः सौंप दिया था, इसलिए भी इस वंश के लिए 'नवनन्द नाम प्रयुक्त होता : महापद्मनन्द चलुर राजनीतिज्ञ, कुशल शासक और सफल विजेता था। उसने शीघ्र ही शासन को सुव्यवस्थित कर लिया, साम्राज्य की स्थिति सुदृढ़ और सीमाओं को सुरक्षित कर लिया, और दक्षिणापथ पर आक्रमण करके उस दिशा में भी अनेक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। तमिल भाषा के प्राचीन संगम साहित्य, अन्य दक्षिणी अनुश्रुतियों तथा 'नवनन्द देहरा' प्रभृति. नामों से दक्षिण भारत में नन्दों के प्रवेश एवं अधिकार का समर्थन होता है। मगध का यह नन्द राजा अब बहुभाग भारत का एकछत्र सम्राट् था। उसने 'सर्वक्षमान्तक एकराट' विरुद भी धारण किया था। सत्तर-पश्चिम में पंचनद पर्यन्त प्रायः समस्त प्रदेश तथा लिाग में कुन्तल-जैसे विशाल सुमाग उसके साम्राज्य के अंग थे। पाटलिपुत्र उसकी प्रधान राजधानी थी और उज्जयिनी उप-राजधानी थी। यूनानी सम्राट अलक्षेन्द्र (सिकन्दर महान) के साथ आनेवाले लेखकों का कथन है कि व्यास नदी के उस पार पूर्व की और का सम्पूर्ण प्रदेश पालिदोधा (पाटलिपुत्र) के इस अत्यन्त शक्तिशाली नन्दराड़ा के अधीन था। उसके पास विपुल सैन्य शक्ति थी और उसके कोषागार असिमत धन से भरे थे। तन्दराज के बल का इसना आतंक था कि सर्वप्रकार प्रयत्न करने पर भी सिकन्दर ई. पू. 326) अपनी विश्वविजयी सेना को नन्द के साम्राज्य की सीमा में प्रवेश करने के लिए तत्पर न कर सका, और भारत विजय का अपना स्वप्न पूरा किये बिना ही उसे वापस स्वदेश लौट जाना पड़ा। नन्दराज का धन-वैभव देश-विदेश की ईष्या का पात्र था, तो उसका अबुल बद सबके हदय में भय का संचार करता था। दुर्भिक्ष नन्द-मौर युग ::45
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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