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________________ This SEEM भारतवर्ष में सन्-संबतों के प्रचलन का यह सर्वप्रथम शिलालेखीय साक्ष्य है। नन्दिवर्धन की हत्या किसी शत्रु द्वारा कल्यापार की गयी बतायी जाती है। उसका पत्र एवं उत्तराधिकारी पहानन्दिन भी अपने पिता के समान प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेश था। उसने लगभग चवालीस वर्ष राज्य किया। कुल परम्परानसार वह स्वयं जैन धमनियायी घा तथा उसके अनेक मन्त्री और कर्मचारी "भी जैन ये। मन्त्रियों में जो प्रधान उनके काल में कई पीढ़ियों से राज्य मन्त्रित्व कला आता था। उन्हों के पुत्र कुमार स्थूलिभद्र थे जो अत्यन्त सुशिक्षित, सुदर्शन, वीर और कना-प्रेमी थे। वह राजकाज में भी पिता को सहयोग देते थे, किन्तु राजधानी पाटलिपुत्र को कोषा नामक अनिन्ध रूपवती एवं कलानिपुण वैश्या-पुत्री के प्रेम में सब कष्ट भूल बैटे, यहाँ तक कि घर-बार छोड़कर उसी के विलास भवन: में पड़े रहने लगे। पिता तथा अन्य परिजनों ने बहुलेरा प्रयल किया, किन्तु किसी की न चली। एकदा स्वयं ही अपनी स्थिति को भान हुआ, चित्त में बैराग्य उत्पन्न हुआ और वह अशान्ति के समस्त बन्धनों को तोड़कर चल पड़े तथा साधु हो गये। पूर्णतया इन्द्रिय विजय करने के उद्देश्य से गुरु की अनुमति लेकर उन्होंने उक्त कोषा गणिका के प्रासाद में ही चातुर्मास किया। परीक्षा में सफल हुए, और उनके चरित्र से प्रभावित होकर कोषा ने भी समस्त रागरंग और भोग-विलास का परित्याग कर दिया। वह भी एक सच्चरित्र साध्वों स्त्री की भाँति अपना जीवन व्यतीत करने लगी। प्रायः उसी काल में, महाराज महानदिन के भासन काल के अन्तिम वषों में, वह अनुश्रुति-प्रसिद्ध द्वादश-वर्षीय भंयकर दुर्भिक्ष पड़ा था जिसकी पूर्व सूचना का आभास धाकर तत्कालीन संघाचार्य अन्तिम श्रुत-केवली भद्रबाहु कई सहस्र शिष्यों के साथ दक्षिणापथ को बिहार कर गये थे। सम्भवतया यह राजा भी उनका भक्त एवं शिष्य होने के कारण उन्हीं के साथ मुनि बनकर दक्षिण देश चला गया था। महावीर नि. सं. 162 (ई.पू. 965) में कणाटक देशस्थ श्रवणबेलगोल के करवप्र पर्वत पर आचार्य भद्रयाह ने काल किया था। उपर्युक्त दुर्भिक्ष काल में ही जैन संघ में प्रथम बार फूट पड़ने के बीज पड़े। दुर्मिक्ष की उपशान्ति के पश्चात् मगध या उत्तरी शाखा के आचार्य स्थूलिभद्र हुए और उन्हीं के नेतृत्व में श्वेताम्बर अनुश्रुति का पहला जैन मुनि सम्मेलन तथा परम्परागत श्रुतागम की चायना पाटलिपुत्र नगर में हुई। प्रायः उसी काल में बौद्धों की द्वितीय संगीति भी पाटलिपुत्र में हुई। उसी काल में सिंघल द्वीप (लंका) के नरेश पाण्डुकाभय (ई. पू. 367-107) ने अपनी राजधानी अनुराधापुर में जैन मन्दिर और मठ बनवाये तथा दो जैन मुनियों का आदर-सत्कार किया था। महानन्दि के उपसन्त बगध में फिर एक घरेलू राज्य क्रान्ति हुई। उसके. राज्यकाल के अन्तिम वर्षों में देश भीषण दुष्काल से पीड़ित रहा था और उस संकटकाल में राज्य शासन भी अव्यवस्थित हो गया था। स्वयं वृद्ध राजा राज्य का परित्याग कर मुनि हो गया था और विदेश चला गया था। इन परिस्थितियों का लाभ 4.६ :: प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष और महिलाएँ
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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