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________________ mummm. Mini - :.. *. १९११ई भी नन्द-मौर्य युग लगभग 500-20 . . ......... नन्दवंशी नरेश .महावीर निर्वाण संवत् 50 (ईसा पूर्व 467) में मगध महाराज्य की राजधानी पाटलिपुत्र मैं बिम्बसार श्रेणिक के वंश का अन्त हुआ और उसी शैशुनाक वंश की एक लघु शाखा में उत्पन्न ब्रात्यनन्दि नामक एक साहसी युवक ने सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। सी वर्ष अवन्ति में प्रजापीड़क पालक के साथ ही साथ चण्डप्रद्योत के वंश का अन्त हो गया और उस सज्य का बहुभाग मगध साम्राज्य में मिला लिया गया। अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी भी प्रायः तभी से मगध साम्राज्य की एक उपराजधानी बन गयी। इस सफलता के कारण प्रात्यनन्दि अवन्ति-धर्मन भी कहलाने लगा। पटना के निकट पाटलिपुत्र के खंडहरों में उसकी एक मूर्ति भी मिली बतायी जाती है, जिसपर उसका नाम (वार्ता या व्रात्यनन्दि) उत्कीर्ण रहा बताया जाता है। यह नाम उसके प्रात्य क्षत्रिय एवं श्रमण तीर्थंकरों का उपासक होने का समर्थक है। वात्यनन्दि अवन्तिवर्धन शैशुनाक का उत्तराधिकारी नन्दिवर्धन काक्रवर्ण कालाशोक (लगभग 440-407 ई. पू.) था जो इस वंश का प्रायः सर्वमहान् एवं प्रतापी नरेश या! महावीर नि. सं. 103 (ई. पू.. 424) में उसने कलिंग देश की विजय की थी और उस राष्ट्र के इष्टदेवता 'कलिंग-जिन' (या अग्रजिन, अर्थात् आदि तीर्थंकर ऋषभदेव) की प्रतिमा को यहाँ से ले आया था तथा उसे अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में प्रतिष्ठित किया था। नन्दिवर्धन ने इक्ष्वाकुओं, शौरसेनों आदि अपशिष्ट पुरातन राज्यों को भी पराजित करके अपने साम्राज्य में मिला लिया और ज्यात वंशों को समाप्त कर दिया था । दक्षिण भारत के नागरखण्ड प्रदेश को भी इसी नरेश ने विजय किया प्रतीत होता है। उसके समय के म. नि. सं. 84 (ई. यू. 449) के बड़ली शिलालेख से प्रतीत होता है कि उस काल में राजस्थान की माध्यामिका नामक प्रसिद्ध चगरी जैनधर्म का एक प्रमुख केन्द्र थी और वहाँ महावीर के उपासकों की इतनी बहुलता थी कि कालगणना में वहौं महावीर निर्वाण संवत् का व्यवहार होने लगा था। भन्द-भौयं युग :: 49
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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