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करनेवाले स्त्री-पुरुष तीर्थकर के उपदेश से प्रभावित होकर समस्त धन-सम्पत्ति को तिनके के समान क्षण-भर में परित्याग करके आत्म-साधना एवं स्व-पर-कल्याण के दुर्गम, दुष्कर एवं अत्यन्त कष्टकारक मार्ग पर निकल पड़ते थे। यदि गृही श्रावक-श्राविका के रूप में भी रहते तो अपनी स्वयं की इच्छाओं और आवश्यकताओं को सीमित करके तथा अपने परिग्रह का परिमाण करके, अपनी उत्पादन सामर्थ्य तनिक भी व्यर्थ किये बिना, शेष धन एवं आय को लोक सेवा में लगा देते थे। महावीर के साक्षात् भक्त प्रावक-श्राविकाएँ ही परवी काल के जैन गृहस्थ
स्त्री-परुषों के लिए, चाहे वे किसी वर्ण, जाति या वर्ग के, किसी व्यवसाय या वृत्ति RT और
किसी ना काल में एपप्रेरणा के सतत स्रोत तथा अनुकरणीय आदर्श बने रहे हैं।
42 :: प्रमुख ऐतिहासिकः जन पुरुष और महिलाएँ